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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
उत्तराधिकारी सिद्ध हुए। गुणभद्र भदन्त ने ठीक ही कहा है कि जिस तरह हिमालय से गंगा का, सर्वज्ञ के मुँह से दिव्य ध्वनि का और उदयाचल से भास्कर का उदय होता है, उसी तरह वीरसेन से जिनसेन का उदय हुआ।103
ये सिद्धान्तों के ज्ञाता तो थे ही, कवि भी उच्च कोटि के थे। जयधवला टीका के शेष भाग के सिवाय उनके दो ग्रन्थ और भी उपलब्ध है, पार्वाभ्युदय काव्य और आदिपुराण।104 1. पार्वाभ्युदय
__पार्वाभ्युदय काव्य की रचना जिनसेन स्वामी ने अपने स्वधर्मी विनयसेन की प्रेरणा से की थी और यह इनकी सबसे पहली रचना मालूम होती है।
यह 364 मन्दाक्रान्ता वृत्तों का एक खण्ड-काव्य है तथा संस्कृत साहित्य में अपने ढंग का अद्वितीय ग्रन्थ है।105 2. आदिपुराण
जिनसेन स्वामी ने सभी त्रेसठ श्लाका पुरुषों का चरित्र लिखने की इच्छा से महापुराण का प्रारम्भ किया था, परन्तु बीच में ही शरीरान्त हो जाने से उनकी वह इच्छा पूरी न हो सकी और महापुराण अधूरा रह गया। जिसको बाद में उनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने पूर्णता प्रदान की है। महापुराण के दो भाग हैं
1. आदिपुराण; 2. उत्तरपुराण।
आचार्य जिनसेन ने अपनी कृति को पुराण और महाकाव्य दोनों नामों से अभिहित किया है। वास्तव में यह न तो ब्राह्मणों के विष्णु पुराण आदि जैसा पुराण है और न शिशुपालवधादि के समान महाकाव्य के बाह्य लक्षणों से सम्पन्न एक पौराणिक महाकाव्य है।
___ आदिपुराण केवल पुराण ही नहीं है, उच्च कोटि का महाकाव्य भी है। गुणभद्र स्वामी ने उसकी प्रशंसा में कहा है कि यह सारे छन्दों और अलंकारों को लक्ष्य में रखकर लिखा गया है, इसकी रचना सूक्ष्म अर्थ और गृढ पदों वाली है। यह ग्रन्थ सुभाषितों का भी भंडार है।107
वर्धमान पुराण
वर्धमान पुराण को भी उन्हीं की रचना माना जाता है। जिनसेन द्वितीय ने अपने ग्रन्थ हरिवंश पुराण में इसका उल्लेख किया है। किन्तु इसका अन्यत्र कहीं उल्लेख नहीं मिलता है।108