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________________ जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण 6. तपदानकथा - जिस प्रकार तप और दान करने से जीवों को ___ अनुपम फल की प्राप्ति होती हो उस प्रकार के तप और दान का कथन करना तपदान कथा कहलाती है। 7. गत्याख्यान - नरक तिर्यक्, मनुष्य, और देव आदि के भेद से गतियों के चार भेद माने गये हैं। उनके कथन को गत्याख्यान कहते हैं। 8. फलाख्यान - संसारी जीवों को जो पुण्य और पाप का फल प्राप्त होता है। उस फल को मोक्ष प्राप्ति पर्यन्त वर्णन करना फलाख्यान कहलाता है। आचार्य जिनसेन का व्यक्तित्व और कृतित्व जिनसेन आचार्य वीरसेन के शिष्य थे। जयधवला टीका से ज्ञात होता है कि स्वामी जिनसेन बाल्यकाल से ही दीक्षित हो गए थे। सरस्वती के बड़े आराधक थे तथा कलेवर से हल्के और आकृति से भव्य नहीं थे। कुशाग्रबुद्धि ज्ञानाराधना और तपश्चर्या से इनका व्यक्तित्व महनीय हो गया था। निःसन्देह यह बात सत्य है कि जगत में गुणों का मान होता है। शरीर तथा अवस्था का नहीं। तभी तो जिनसेन मूलसंघ के पंचस्तूपान्वय के आचार्य बने। आचार्य जिनसेन ने नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए सम्पूर्ण आगमों का ज्ञान प्राप्त किया। सरलहृदयी जिनसेन निरन्तर स्वाध्याय एवं जैन सिद्धान्त के अनुसंधान में लगे रहते थे। वे स्वभाव से बड़े मधुरभाषी तथा सादगी के पुञ्ज थे। उन्होंने अपना सारा जीवन धर्म प्रचार-प्रसार के लिए अर्पित किया। जिनसेन सभी शास्त्रों के पण्डित थे, वे सिद्धान्त, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण और प्रमाण शास्त्र में निपुण थे। जिनसेन अपने गुरु के सच्चे उत्तराधिकारी सिद्ध हुए। अपने साहित्यिक जीवन में जिनसेन का तीन स्थानों से सम्बन्ध था। चित्रकूट, बंकापुर और वाटग्राम। चित्रकूट में एलाचार्य का निवास था। जिनसे उनके गुरु वीरसेन ने सिद्धान्त ग्रन्थ पढ़े थे। चित्रकूट वर्तमान चित्तौड़ है। बाटग्राम में रहकर उनके गुरु वीरसेन ने धवला टीका लिखी थी। बाटग्राम का विद्वानों ने बड़ौदा के साथ साम्य स्थापित किया है। बंकापुर (धारवाड़) कर्नाटक में रहकर जिनसेन और गुणभद्र ने महापुराण की रचना की थी। तत्कालीन राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष जिनसेन का बड़ा भक्त था। उस समय अमोघवर्ष का राज्य केरल से गुजरात मालवा चित्रकूट तक फैला हुआ था। जिनसेन का सम्बन्ध चित्रकूटादि के साथ होने से तथा महाराज अमोघवर्ष द्वारा
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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