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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
इन तीन वर्गों की स्थापना का वर्णन है। सत्तरहवें पर्व में नृत्यरत नीलांजना अप्सरा की मृत्यु से ऋषभदेव के मन में नश्वर संसार के प्रति विरक्ति का भाव अर्थात् वैराग्य, दीक्षा, का वर्णन है। अट्ठारहवें पर्व में छ: मास की तपस्या, उन्नीसवें पर्व में धरणेन्द्र द्वारा नमि, विनमि के लिए विजयार्ध की नगरियों का प्रदान करना, बीसवें पर्व में ऋषभदेव के एक वर्ष तक तपश्चरण धारण करने, हस्तिनापुर के महाराज श्रेयांस के यहाँ इक्षुरस का आहार लेने आदि का वर्णन किया है।
21 से 23 पर्यों के अन्तर्गत गौतम गणधर द्वारा ध्यान के विभिन्न भेदों ऋषभदेव के कैवल्य प्राप्ति एवं देवों द्वारा उनके प्रथम उपदेश के लिये समवसरण निर्माण व उसके स्वरूप का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है।
24वें, 25वें पर्यों में भरत द्वारा ऋषभदेव की 108 व सौधर्म इन्द्र द्वारा 1008 नामों से स्तवन तथा अष्टद्रव्य आदि से पूजन करने एवं उनके विहार की विस्तृत चर्चा हुई है।
26वें से लेकर 34वें पर्यों में भरत चक्रवर्ती के रत्नचक्र प्रकट होने, उनकी सेना के विभिन्न अंगों एवं अस्त्र-शस्त्रों के प्रकार तथा उनके दिग्विजय का विस्तार के साथ वर्णन हुआ है।
34वें से लेकर 36वें पर्यों में भरत और बाहुबली के मध्य नेत्र, जल और मल्ल-युद्ध, बाहुबलि का वैराग्य, वन में जाकर दीक्षा धारण करने और तपश्चर्या एवं मोक्ष प्राप्ति का वर्णन है।
37वें पर्व से लेकर 42 पर्यों में भरत द्वारा ब्राह्मण वर्ण की स्थापना, ब्राह्मणोचित, गर्भान्वय, दीक्षान्वय तथा कर्त्तन्वय आदि क्रियाओं एवं षोडश संस्कारों और हवन के योग्य मन्त्रों आदि का विस्तृत वर्णन है जो वैदिक परम्परा के प्रभाव की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
___43 से 47 पर्यों में जिनसेन के शिष्य गुणभद्र द्वारा सर्वप्रथम अपने गुरु जिनसेन के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित की गयी है। तदनन्तर जयकुमार व सुलोचना की रोचक कथा, जिसमें विवाह, विरक्ति व जयकुमार के ऋषभदेव के समवसरण में गणधर पद की प्राप्ति करने, भरत चक्रवती की दीक्षा, कैवल्य प्राप्ति एवं ऋषभदेव का अन्तिम बिहार, कैलाश पर्वत पर निर्वाण प्राप्ति की कथा दी गई है।
सत्कथा के सात अङ्ग - द्रव्य, क्षेत्र, तीर्थ, काल, भाव, महाफल और प्रकृत सात अंगों वर्णन इस प्रकार है:।