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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
सर्गश्चप्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च।
वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम्।। विष्णु पुराण और ब्रह्माण्ड पुराण में भी यही श्लोक मिलता है। पुराण का यह लक्षण वर्तमान सभी पुराणों में घटता है।
संहिताओं,62 ब्राह्मणों,63 आरण्यकों,64 उपनिषदों, सूक्तग्रन्थों,66 स्मृतिग्रन्थों,67 रामायण, महाभारत,69 व्याकरण, दर्शनशास्त्र, ज्योतिष.2 नीतिशास्त्र, आदि ग्रन्थों में "पुराण" को सम्मान प्राप्त हुआ है।
(सं. वि.) प्राचीन पुराना; (पु.) शिव, महादेव, प्राचीन आख्यान, पुरानी कथा, हिन्दुओं का धर्म सम्बन्धी प्राचीन ग्रन्थ जिसमें संसार की सृष्टि, लय प्राचीन ऋषि-मुनियों और राजाओं की कथाएँ हैं, परम्परागत कथा संग्रह (पुराण अट्ठारह हैं) इसमें विष्णु, ब्रह्माण्ड, मत्स्यादि, महापुराणों में सृष्टि . तत्त्व, पुनः, सृष्टि और लय देव और पितरों की वंशावली, मन्वन्तर का अधिकार तथा सूर्य और चन्द्रवंशीय राजाओं का संक्षिप्त वर्णन पाया जाता है।74
जैनाचार्यों ने भी संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में व्यापक परिशीलन किया है। इन्होंने समय समय पर जैन धर्म की मान्यताओं, परम्पराओं एवं आदर्शों को समक्ष रखते हुए अनेक पुराणों का सर्जन किया है। जिस प्रकार सनातन धर्म में पुराणों और उपपुराणों का विभाग किया गया है, वैसा जैन समाज में उपलब्ध नहीं होता है।75
पुराण के पर्यायवाची ____ आदिपुराण ऋषियों द्वारा संकलित होने से आर्ष, सत्यार्थ का निरूपक होने से सूक्त तथा धर्म का प्ररूपक होने के कारण धर्मशास्त्र माना जाता है। "इति इह आसीत्" यहां ऐसा हुआ-ऐसी अनेक कथाओं का इसमें निरूपण होने से ऋषिगण उसे "इतिहास" इतिवृत्त और ऐतिह्य भी मानते हैं।
ऋषि प्रणीतमार्षस्यात् सूक्तं सूनृतशासनात्। धर्मानुशासनाच्चेदं धर्मशास्त्रमिति स्मृतम्।। इतिहास इतीष्टं तद् इतिहासीदिति श्रुतेः। इति वृत्तमथेतिहमाम्नायञ्चामनन्ति तत्॥