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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण आचार्य उमास्वाति सर्वप्रथम संस्कृत के लेखक हैं, जिन्होंने जैन दर्शन पर अपनी कलम उठाई। इनकी भाषा शुद्ध एवं संक्षिप्त है। इनकी शैली में सरलता एवं प्रवाह है। यह ग्रन्थ श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में समान रूप से मान्य है। इनकी शैली सूत्र शैली है। इसमें दस अध्याय हैं जिनमें जैन दर्शन और आचार का संक्षिप्त निरूपण है। यह ग्रन्थ आत्म विद्या, तत्त्वज्ञान, कर्मशास्त्र आदि अनेक विषयों का प्रतिनिधित्व कोष है।''
तत्त्वार्थ पर टीकाएँ
तत्त्वार्थ सूत्र पर आचार्य उमास्वाति का स्वोपज्ञ एक भाष्य मिलता है; जो उमास्वाति की अपनी ही रचना है। इसके अतिरिक्त 'सर्वार्थसिद्धि' नाम की एक संक्षिप्त, अति महत्त्वपूर्ण टीका मिलती है। यह टीका दिगम्बर परम्परा के आचार्य पूज्यपाद की कृति है जो छठी शताब्दी में हुए थे। सर्वार्थसिद्धि पर आचार्य अकलंक ने तत्त्वार्थ राजवार्तिक की रचना की। यह टीका बहुत विस्तृत एवं सर्वाङ्गपूर्ण है। इसमें दर्शन के प्रत्येक विषय पर किसी न किसी रूप में प्रकाश डाला गया है। विद्यानन्द कृत "श्लोकवार्त्तिक" भी बहुत महत्त्वपूर्ण टीका है। इसके अतिरिक्त सिद्धसेन और हरिभद्र ने क्रमशः "बृहत्काय" और "लघुकाय" की रचना की।20
तत्त्वार्थ सूत्र के सन्दर्भ में यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि महामहिम जैन धर्म दिवाकर आचार्य सम्राट पूज्य श्रीआत्माराम जी म. ने श्वेताम्बर परम्परा सम्मत बत्तीस आगमों के आधार पर तत्त्वार्थ सूत्रगत प्रत्येक सूत्र के साथ समन्वय किया है जिससे यह स्पष्ट है कि तत्त्वार्थ सूत्र का आगम के साथ किसी भी प्रकार का कोई विरोध नहीं है।
__इन सभी टीकाओं में दार्शनिक दृष्टिकोण ही प्रधानरूप से मिलता है। जैन दर्शन के आगे की प्रगति पर इन टीकाओं का अत्यधिक प्रभाव पड़ा है। ये टीकाएँ आठवीं-नवीं शताब्दी में लिखी गई हैं। जिस प्रकार दिङ्नाग के "प्रमाण समुच्चय" पर धर्मकीर्ति ने "प्रमाणवार्तिक" लिखा और उसी को केन्द्रीय बिन्दु मानकर समग्र बौद्ध दर्शन विकसित हुआ, उसी प्रकार "तत्त्वार्थसूत्र" की इन टीकाओं के आसपास जैन दार्शनिक साहित्य का बड़ा विकास हुआ। इन टीकाओं के अतिरिक्त बारहवीं शताब्दी में मलयगिरी ने और चौदहवीं शताब्दी में चिरन्तन मुनि ने भी तत्त्वार्थ पर टीकाएँ लिखीं। अट्ठारहवीं शताब्दी में नव्यन्याय शैली के प्रकाण्ड पण्डित उपाध्याय यशोविजय ने भी अपनी टीका लिखी। दिगम्बर परम्परा के श्रुतसागर, विबुधसेन, योगीन्द्रदेव, योगदेव. लक्ष्मीदेव.