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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
बारहवें अंग दृष्टिवाद के ज्ञाता आचार्य भद्रबाहू स्वामी के सिवाय कोई नहीं रहा। वे उस समय 12 वर्ष के लिए महाप्राण नामक साधना करने के लिए पाटलिपुत्र से बाहर नेपाल की गिरि-कंदराओं में विराजमान थे। संघ के अत्याग्रह पर स्थूलिभद्र को अनेक साधुओं के साथ दृष्टिवाद की वाचना लेने के लिए आचार्य भद्रबाहु स्वामी के पास भेजा गया। उनमें से दृष्टिवाद को ग्रहण करने में केवल स्थूलिभद्र ही समर्थ सिद्ध हुए । उन्होंने दशपूर्व सीखने के बाद अपनी श्रुतलब्धि ऋद्धि का प्रयोग किया। आचार्य भद्रबाहू ने उनके श्रुत लब्धि के प्रयोग को अपने ज्ञान द्वारा जानकर वाचना देना बन्द कर दिया। तदनन्तर बहुत आग्रह करने पर चार पूर्वों का ज्ञान शब्द रूप में ही दिया अर्थ रूप में नहीं दिया। अर्थ की दृष्टि से अन्तिम श्रुत केवली आचार्य भद्रबाहू स्वामी थे। इस वाचना में ज्ञान एकत्रित तो कर लिया गया, पर इस ज्ञान को लिपिबद्ध न कर स्मृति पटल में ही रखा गया । "
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माथुरी वाचना
आगम संकलन का द्वितीय प्रयत्न वीर निर्वाण सम्वत् 827 और 840 निश्चित किया गया। उस समय दो वाचनाएँ हुई- प्रथम मथुरा में और द्वितीय वल्लभी में। मथुरा में जो वाचना हुई थी वह आर्य स्कन्दिल के नेतृत्व में हुई थी और वल्लभी में जो वाचना हुई वह आचार्य नागार्जुन के कुशल नेतृत्व में हुई। वल्लभी में हुई वाचना नागार्जुनीय वाचना के नाम से विख्यात है।
आगम लेखन का कार्य माथुरी वाचना के अनुयायियों के अनुसार वीर निर्वाण के 980 वर्ष पश्चात् तथा वल्लभी वाचना के अनुयायियों के अनुसार वीर निर्वाण के 993 वर्ष पश्चात् देवर्द्धिगणी क्षमाक्षमण के नेतृत्व में वल्लभी में सम्पन्न हुआ। इसके पश्चात् फिर कोई सर्वमान्य वाचना नहीं हुई। वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी के पश्चात् पूर्वज्ञान की परम्परा विच्छिन्न हो गई | | |
4. जैन आगमों की संख्या
श्वेताम्बर परम्परा में वर्तमान में पूर्वापर विरोध से रहित अथ च स्वतः प्रमाणभूत जैनागम 32 माने जाते हैं। उनमें 11 अंग, 12 उपांग, 4 मूल, 4 छेद और एक आवश्यक सूत्र है। ये कुल 32 आगम हुए परन्तु ग्रन्थकार ने द्वादशाङ्गी का नामोल्लेख ग्रन्थ में किया है।