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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
मस्तिष्क में धारण करते हैं। जब उनका मस्तिष्क परिपूर्ण हो जाता है तब उसे बारह अंगों में विभाजित करके लोकहित में उद्घाटिक कर देते हैं। अर्थात् सूत्र रूप में बारह अंगों की रचना गणधर करते हैं। जिनको दीक्षा लेते ही पूर्वों का ज्ञान हो जाता है वे ही गणधर बनते हैं। चौदह पूर्वों के नाम इस प्रकार उल्लिखित हैं :
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1. उत्पादपूर्व, 2. अग्रीयणीयपूर्व, 3. वीर्यानुप्रवादपूर्व, 4. अस्तिनस्ति प्रवादपूर्व, 5. ज्ञानप्रवादपूर्व, 6. सत्यप्रवादपूर्व, 7. आत्मप्रवादपूर्व, 8. कर्मप्रवादपूर्व, 9. प्रत्याख्यानप्रवादपूर्व, 10. विद्यानुप्रवादपूर्व 11. अवन्ध्यपूर्व, 12. प्राणायुपूर्व. 13. क्रियाविशालपूर्व, और 14. लोकबिन्दुसारपूर्व ।
दृष्टिवाद में पूर्वों का समावेश
द्वादशाङ्गी के बारहवें भाग का नाम दृष्टिवाद है । दृष्टिवाद पाँच भागों में विभक्त है - (1) परिकर्म, (2) सूत्र, (3) प्रथमानुयोग, (4) पूर्वगत तथा (5) चूलिका । चतुर्थ विभाग पूर्वगत में चतुर्दश पूर्वज्ञान का समावेश माना गया है । पूर्वज्ञान के आधार पर द्वादशाङ्गी की रचना हुई। यही कारण है कि अन्तत: उस ज्ञान को दृष्टिवाद में उसे सन्निविष्ट कर दिया गया। इससे यह स्पष्ट है कि जैन तत्त्वज्ञान के महत्त्वपूर्ण विषय उसमें सूक्ष्म विश्लेषण पूर्वक बड़े विस्तार से व्याख्यायित थे। 7
2. आगमों का निर्माण
अर्थरूपशास्त्र के निर्माता भगवान महावीर हैं और शब्दरूप शास्त्र का निर्माण किया है गणधरों ने। शासन- हित ही उनका लक्ष्य था। इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिये सूत्रों का प्रवर्तन हुआ। भगवान महावीर ने ही अर्थ रूप में वर्तमान शास्त्रों का निर्माण किया था और उसे शाब्दिक रूप देने वाले गणधर हैं। इसीलिये शास्त्रों में विवेचना के समय गणधर यही कहते हैं कि " तस्सणं अयमट्ठे पण्णत्ते" अर्थात् मेरे द्वारा प्रयुक्त शब्द भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अर्थ को स्पष्ट कर रहे हैं। "
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जैन परम्परा यह स्वीकार करती है कि सभी तीर्थंकरों के काल में द्वादशाङ्गी गणिपिटक का आविर्भाव होता है। प्रत्येक तीर्थंकर के जितने गण होते हैं उतने ही उनके गणधर होते हैं और जितने गणधर होते हैं प्रत्येक अंग की वाचनाएँ भी उतनी ही होती हैं। परन्तु यह नियम भगवान महावीर पर