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आदिपुराण में ईश्वर सम्बन्धी विभिन्न धारणाये और रत्नत्रय विमर्श 337
मुक्तात्मा
मुक्तात्मा अस्पर्शी होता है। स्वाभाविक रूप से स्थित होता है, सभी प्रकार के विकारों से मुक्त होता है और गतिहीन समुद्र जैसा होता है। वह समस्त अशुद्ध तत्त्वों से मुक्त है, विशुद्ध है, निष्कलंक है, और इसलिए निराबाधित है और परमानन्दावस्था में लीन है। वह चार घाती (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय) और चार अघाती ( वेदनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र) कर्मों से मुक्त होता है। कर्म उसे पुनः बाँधने में असमर्थ होते हैं।
कर्म बन्धन टूटने से जिसका आत्मीय स्वरूप प्रकट हो जाता है, वे मुक्त आत्माएँ कहलाते हैं। 10 ऐसे आत्मा के शरीरजन्य क्रियाएँ नहीं होते। ये जन्म मृत्यु आदि के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं। इसलिए उन्हें सत् चित् - आनन्द कहा जाता है। मुक्तात्मा उपाधि रहित होते हैं। इनके स्थूल सूक्ष्मादि किसी प्रकार के शरीर नहीं होते। "
जिन आत्माओं के द्रव्य व भाव दोनों कर्म समूलत: नष्ट हो जाते हैं, वे मुक्त कहलाते हैं। 12
मुक्त पुरुष अयोगी केवली 14वें गुणस्थान में पहुँच कर सभी प्रकृतियों का नाश करके, लेपरहित, शरीररहित, रोगरहित, सूक्ष्म, अव्यक्त होते हुए लोक के अनन्तभाग में निवास करते हैं। कर्म से रहित होने के कारण जिनकी आत्मा अतिशय शुद्ध हो जाती है। ऐसे सिद्ध भगवान् ऊर्ध्वगमन स्वभाव होने के कारण एक समय में ही लोक के अन्तभाग को प्राप्त हो जाते हैं। 13
जो मुक्तात्मा शुद्ध, स्वतन्त्र, परिपूर्ण, परमेश्वर, अविश्वर, सर्वोच्च, परम विशुद्ध और निरंजन है वही मुक्त है। 14
मुक्तात्मा के पर्याय
मुक्तात्मा, मुक्तजीव को कई नामों से पुकारा जाता है - कृतार्थ, निष्ठित, सिद्ध, कृतकृत्य, निरामय, सूक्ष्म और निरंजन ये सभी मुक्त होने वाले आत्मा के पर्यायवाची शब्द कहे गये हैं। 15
सिद्ध का स्वरूप
जब आत्मा पूर्णत: कर्म पुद्गलों से मुक्त हो जाता है, संसार के अग्रभाग पर पहुँच जाता है, संसार के समस्त पदार्थों को युगपत् जानने-देखने लगता है, अनन्त चतुष्ट्य से सम्पन्न हो जाता है, तब उसे सिद्ध कहा जाता है।