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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
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पूर्ण, निश्चल और स्थिरावस्था है। आत्मा का अस्तित्व उसके विशुद्ध रूप में ही है, जिसे मोक्ष कहा जाता है यह अवस्था आत्मा की पूर्ण विकसित अवस्था है | मुक्तात्मा सदैव सिद्धशिला पर रहता है और संसार में कदापि लोट कर नहीं आता है। जिस तरह दग्ध बीज पुनः अंकुरित नहीं होते उसी तरह जब कर्मरूपी बीज पूर्णतः दग्ध हो जाते हैं तो मुक्तात्मा संसार में पुनः वापिस नहीं आते । '
बन्ध हेतुओं, मिथ्यात्व व कषायादि के अभाव और निर्जरा से सब कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष है। स्पष्ट है कि कर्मों की सम्पूर्ण रूपेण निर्जरा होने के उपरान्त ही आत्मा को मोक्ष ही प्राप्ति होती है।
मोक्ष के भेद
1. भाव मोक्ष
2. द्रव्य मोक्ष।
1. भाव मोक्ष क्षायिक ज्ञान, दर्शन व यथाख्यात चारित्र नाम वाले (शुद्ध रत्नत्रयात्मक) जिन परिणामों से निरविशेष कर्म आत्मा से दूर किये जाते हैं, उन परिणामों को भाव मोक्ष कहते हैं। भाव मोक्ष की प्राप्ति - ज्ञानावरण दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय - इन चार घाती कर्मों के विनाश से होती है । "
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2. द्रव्य मोक्ष • सम्पूर्ण अष्ट कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना द्रव्य मोक्ष है। द्रव्य मोक्ष की प्राप्ति ( वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र) इन चार अघाति कर्मों के नष्ट होने से प्राप्त होती है। इसलिए पूर्ण मुक्ति तभी कहलाती है, जब घाती और अघाती दोनों प्रकार के कर्मों का विनाश हो जाता है। 7
शुद्ध रत्नत्रय की साधना से अष्ट कर्मों की आत्यन्तिकी निवृत्ति द्रव्य मोक्ष है और रागादि भावों की निवृत्ति भाव मोक्ष है। मनुष्य गति से ही जीव को मोक्ष होना सम्भव है। आयु के अन्त में उसका शरीर कपूरवत् उड़ जाता है और वह स्वाभाविक ऊर्ध्वगति के कारण लोक शिखर पर जा विराजते हैं। जहाँ वह अनन्तकाल तक अनन्त अतीन्द्रिय सुख का उपभोग करते हुए अपने चरम शरीर के आकार रूप से स्थित रहते हैं और पुनः शरीर धारण करके जन्म-मरण के चक्कर में कभी नहीं पड़ते। ज्ञान ही उनका शरीर होता है। जैन दर्शनकार उसके प्रदेशों की सर्व व्यापकता स्वीकार नहीं करते। न ही उसे निर्गुण व शून्य मानते हैं। उसके स्वभाव भूत अनन्त ज्ञानादि आठ प्रसिद्ध गुण हैं। जितने जीव मुक्त होते हैं उतने ही निगोद राशि से निकल कर व्यवहार राशि में आ जाते हैं. इससे लोक जीवों से रिक्त नहीं होता । "