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सप्तम अध्याय
आदिपुराण में मोक्ष और सिद्धशिला विमर्श
मोक्ष
मोक्ष का शाब्दिक अर्थ
मोक्ष शब्द संस्कृत की " मुच्" धातु से निष्पन्न हुआ है जिसका शाब्दिक अर्थ है - मुक्त करना, स्वतन्त्र करना, छोड़ देना और ढीला कर देना । तात्पर्य है संसार से निवृत्ति और आध्यात्मिक मुक्ति । मोक्ष का अर्थ है आध्यात्मिक परिपूर्णता, अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति एवं दुःखों की समाप्ति ।
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मोक्ष का स्वरूप
" मोक्ष आसने " धातु से बना है। अथवा जिनसे कर्मों का समूल उच्छेद हो और कर्मों का पूर्ण रूप से छूटना मोक्ष है। जिस प्रकार बन्धन युक्त प्राणी बेड़ी आदि से छूट जाने पर स्वतन्त्र होकर यथेच्छ गमन करता हुआ सुखी होता है। उसी प्रकार कर्मबन्धन का वियोग हो जाने पर आत्मा स्वाधीन होकर आत्यन्तिक ज्ञान दर्शन रूप अनुपम सुख का अनुभव करता है। स्पष्ट है कि कर्मों से मुक्त हुए बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती । कर्म बन्धन में बन्धे रहने पर आत्मा संसार में परिभ्रमण करती रहती है। कर्मों के स्वतन्त्र हो जाने पर ही आत्मा मोक्ष प्राप्त कर सकता है। 2
मोक्ष बन्ध का प्रतिपक्षी तत्त्व है। समस्त कर्मा अर्थात् आठ कर्मों के (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र, अन्तराय) बन्ध वाला जीव, संवर और निर्जरा के द्वारा पूर्णरूप से कर्मबन्धन से छूट जाता है। अर्थात् आत्मा अपने शुद्ध असली स्वरूप में आ जाता है। तब वह अवस्था मोक्ष कहलाती है। मोक्ष किसी स्थान को नहीं, अपितु कर्मरहित जीव की शुद्धावस्था को ही मोक्ष कहते हैं।
मोक्ष को आत्मा की निर्दोष और सर्वोच्च अवस्था के रूप में माना गया है। यह अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन एवं अनन्त सुख से प्रकाशित होता है। वह