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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण (ख) सप्तानां भङ् गानां वाक्यानां, समाहारः समूहः सप्तभङ्गीति। -सप्तभंगीतरंगिणी
पृ. 1 132. त.सू. 1.6 133. अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वम्-अन्ययोगव्यवच्छेदिकाकारिका 22 134. प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधविकल्पना सप्तभंगी। -तत्त्वार्थ रा.वा.
1.6.51 135. उत्पादादित्रयोद्वेलं सप्तभङ्गीबृहर्ध्वनिम्।
-आ.पु. 21.179 सप्तभंगयात्मिकेयं ते भारती विश्वगोचरा।
-आ.पु. 33.135 136. स्यादस्त्येव हि नास्त्येव स्यादवक्तव्यमित्यपि। स्यादस्ति नास्त्यवक्तव्यमिति ते सार्वभारती।।
-आ.पु. 33.136 137. त.सू. (के.मु.) 1.35 (वि.) 138. त.सू. (के.मु.) 1.35 (वि.) 139. वही। 140. वही। 141. वही। 142. वही। 143. वही। 144. जै.द (न्या वि.श्री) पृ. 345 145. यथाकर्मास्रवो न स्यात् चारित्रं संयमस्तथा।
-आ.पु. 47.306 146. चेतसा वचसा तन्वा कृतानुमतकारितैः।
पापक्रियाणां यस्त्यागः सच्चारित्र। -तत्त्वानुशासन (नागसेन सूरिकृत) 27 147. द.सं. 46 148. माध्यस्थलक्षणं प्राहश्चारित्रं वितषो मनेः।
मोक्षकामस्य निर्मुक्तचेलस्याहिंसकस्य तत्।। -आ.पु. 24.119 149. उत्तरा.सू. 28.38, 35-36; सू. कृताङ्ग. 1.12.1; वि.भा. 3.11 26, 1158 150. रत्न.श्रा. 50; पुरुष.सि. 40 151. प्रवचनसार 3.40; नियमसार 70 152. उत्तरा.सू. 28.32; सामायिकच्छेदोपस्थाप्यपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातानि चारित्रम्।
- त.सू. 9.18 153. ईर्यादि विषया यत्ना मनांवाक्कायगुप्तयः। परिषहसहिष्णुत्वमिति चारित्रभावनाः।।
- आ.पु. 21.98