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________________ 338 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण जो आत्मा सिद्धावस्था को प्राप्त कर लेता है, वह सिद्धशिला पर पहुँच जाता है। वहाँ न जन्म है, न मरण, न जरा, न भय, न आसक्ति, न इच्छा, न दुःख है और न रोग, न शोक इत्यादिक है। 6 इस अवस्था में कारण कार्यवाद का सिद्धान्त भी अंशतः घटित होना संभव नहीं है। क्योंकि सिद्ध न तो किसी चीज़ को उत्पन्न करते हैं और न किसी से उत्पन्न होते हैं। निषेधात्मक रूप में यह कहा जा सकता है कि सिद्धों को न दुःख है न सुख, न जरा है न मृत्यु, न शुभ कर्म है न अशुभ, न बाधा है न दुष्काल, मोह, दु:ख, इच्छा क्षुधादि है। विधेयात्मक रूप से कहने पर यह कहा जा सकता है कि वहाँ पूर्ण ज्ञान दर्शन चतुष्ट्य गुण है और अमूर्त अवस्था है।17 सिद्ध की परिभाषा श्रेणी विरहित है परन्तु वह सदैव अनन्त चतुष्ट्य का उपभोग करता है। सिद्धत्व की प्राप्ति का तात्पर्य है - आत्मा की परम विशुद्धावस्था की प्राप्ति। जहाँ सांसारिक दु:खों का पूर्णतः अभाव रहता है। यह परमानन्दावस्था है, जो कर्मों के निजीर्ण हो जाने पर होती है। वहाँ अविद्या और क्रोध इत्यादिक विकार नहीं होते हैं। पुरुषार्थ की परमकाष्ठा को प्राप्त हुए कर्मरूपी शत्रुओं को जीतने वाले अर्थात् कर्मों को क्षय करने वाले कृतकृत्य और रागादि कर्मफल से रहित अविनाशी विशुद्धि को प्राप्त हुए रोगादि क्लेशों से रहित, सिद्ध भगवान् होते हैं। सिद्ध भगवान् अमूर्त अशरीरी होते हैं। सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हैं। वे साकार होकर भी निराकार है और निराकार होकर भी साकार है। शुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति होने से वे सिद्ध होते हैं।' सिद्ध शरीर रहित होते हैं। वे चैतन्यधन और केवलज्ञान, केवलदर्शन से संयुक्त होते हैं। साकार और अनाकार उपयोग उनके लक्षण हैं। सिद्ध केवलज्ञान से संयुक्त होने पर सर्व भाव गुणपर्याय को जानते हैं और अपनी अनन्त केवलदृष्टि से सर्व भाव देखते हैं। न मनुष्य को ऐसा सुख होता है और न सब देवों को, जैसा कि अव्याबाध सुख सिद्धों को प्राप्त होता है। वे शाश्वत सुखों को प्राप्त कर अव्याबाध सुख के धनी होते हैं। सिद्ध जन्म-जरा-मरण के बन्धन से मुक्त है।20 जो ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि कष्ट कर्मों से रहित हैं, अनन्त सुख रूपी अमृत का अनुभव करने वाले शान्तिमय हैं, नवीन कर्म बन्ध के कारण भूत, मिथ्या दर्शनादिक भाव कर्मरूपी अंजन से रहित हैं, सम्यक्त्व ज्ञान, दर्शन, वीर्य, अव्याबाध, अवगाहन, सूक्ष्मत्व, अगुरु लघु, ये आठ मुख्य गुण जिनके प्रकट हो चुके हैं, जिन्हें अब कोई कार्य करना शेष नहीं है। लोक के अग्र भाग में निवास करने वाले हैं, उनको सिद्ध कहते हैं।।
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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