SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 318 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण द्रव्य के बिना पर्याय और पर्याय के बिना द्रव्य का अस्तित्व नहीं रहता है। द्रव्य के अभाव में गुण और पर्याय नहीं रहते हैं। गुण और पर्याय के बिना द्रव्य नहीं रहता। जगत् में छोटी या बड़ी सभी वस्तुएँ एक दूसरे से न तो सर्वथा असमान ही होती है, न सर्वथा समान हो। इसमें समानता और असमानता दोनों अंश विद्यमान हैं। इसी से वस्तु मात्र सामान्य-विशेष उभयात्मक है, मनुष्य की बुद्धि कभी तो वस्तुओं के सामान्य अंश की ओर झुकती है और कभी विशेष अंश की ओर। जब वह सामान्य अंश को ग्रहण करती है, तब उसका यह विचार द्रव्यार्थिक नय और जब वह विशेष अंश को ग्रहण करती है, तब वही विचार पर्यायार्थिक नय कहलाता है। सभी सामान्य और विशेष दृष्टियाँ भी एक-सी नहीं होती, उनमें भी अन्तर रहता है। इसी को बतलाने के लिए इन दो दृष्टियों के फिर संक्षेप में भाग किये गए हैं। द्रव्यार्थिक नय के तीन और पर्यायार्थिक के चार - इस तरह कुल सात भाग बनते हैं और ये ही सात नय हैं।112 नयों के नाम एवं प्रकार नय सात प्रकार के कहे गये हैं।।13 उनके नाम इस प्रकार हैं (क) नैगम नय (ख) संग्रह नय (ग) व्यवहार नय (घ) ऋजु नय (ङ) शब्द नय (च) समभिरूढ़ नय (छ) एवंभूत नय।14 पहले (नैगम नय) के दो और शब्द नय के तीन भेद हैं।115 (क) नैगम नय - “निगम" शब्द के अनेक अर्थों में एक अर्थ हैनगर तथा एक अर्थ है - मार्ग। जिस प्रकार नगर में जाने के अनेक मार्ग होते हैं उसी प्रकार वस्तु तत्त्व को समझने की अनेक विधियों वाली शैली को नैगम नय कह सकते हैं। आचार्य जिनभद्रगणी ने निगम की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है"णेगगमोऽणेगपहोणेगमो''116 "गम' अर्थात् मार्ग जिसके अनेक मार्ग है, वह नैगम है। सामान्य और विशेष को ग्रहण करने वाला नैगम नय है। नैगम नय के दो भेद हैं।17 - 1. समग्रग्राही
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy