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________________ आदिपुराण में ईश्वर सम्बन्धी विभिन्न धारणाये और रत्नत्रय विमर्श 317 प्रमाण द्वारा कहे सामान्य स्वरूप का नय03 विशेष कथन करता है। जैसे "मनुष्य है" यह सामान्य कथन प्रमाण है। इस मनुष्य के दो हाथ है, दो पाँव है, दो आँखें हैं, नाक आदि एक-एक अंग-उपांग की अपेक्षा विशेष-विशेष कथन नयों का विषय है। अर्थात् वस्तु का स्वरूप मात्र कथन प्रमाण का कार्य है और उसका विशेष विश्लेषण करना नयों का कार्य है। 04 1106 नय नयवाद जैनदर्शन का एक प्रधान और मौलिकवाद है। जड़ और चेतन जगत् के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिए यह वाद एक सर्वांगीण दिव्य-दृष्टि प्रस्तुत करता है और विभिन्न एकांगी दृष्टियों में सुन्दर एवं साधारण समन्वय का सूत्रपात करता है। किसी भी विषय का सापेक्ष निरूपण करने वाली विचारसरणी को नय कहा जाता है।105 उच्चारण किये अर्थ, पद और उसमें किये गये विक्षेप को देखकर अर्थात् समझकर पदार्थ को ठीक निर्णय तक पहुँचा देता है, इसलिए वे नय कहलाता है।106 अनेक गुण और अनेक पर्यायों सहित, अथवा उनके द्वारा, एक परिणाम से दूसरे परिणाम में, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में और एक काल से दूसरे काल में अविनाशी स्वभाव रूप रहने वाले द्रव्य को जो ले जाता है अर्थात् उसका ज्ञान करा देता है, उसे नय कहते हैं।107 . जीवादि पदार्थों को जो लाते हैं, प्राप्त कराते हैं, बनाते हैं, आभास कराते हैं, उपलब्ध कराते हैं, प्रगट कराते हैं, वे नय हैं।108 नाना स्वभावों से हटाकर वस्तु को एक स्वभाव में जो प्राप्त करायें, उसे नय कहते हैं।109 अर्थात् जिस नीति के द्वारा एक देश विशिष्ट पदार्थ लाया जाता है अर्थात् प्रतीति के विषय को प्राप्त कराया जाता है, उसे नय कहते हैं। 10 नय के भेद 1. द्रव्यार्थिक नय 2. पर्यायार्थिक नय।।।। ___ पर्याय को गौण करके द्रव्य का प्रधान रूप से वर्णन करना द्रव्यार्थिक नय है। द्रव्य को गौण करके पर्याय को प्रधान रूप से वर्णन करना पर्यायार्थिक नय है।
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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