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________________ जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण 314 3. अवधिज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा तथा मर्यादा लिए हुए रूपी (स्पर्श, गन्ध, रस, वर्ण वाले) पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान जिसके द्वारा जीव को प्राप्त होता है, वह अवधिज्ञान कहलाता है। 72 इन्द्रिय और मन की अपेक्षा न रखता हुआ केवल आत्मा के द्वारा रूपमय एवं मूर्त पदार्थों का साक्षात् करने वाला ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है। अथवा अवधि शब्द का अर्थ मर्यादा भी होता हैं। अवधिज्ञानरूपी द्रव्यों को प्रत्यक्ष करने की शक्ति रखता है। यही इसकी मर्यादा है। अथवा " अव" शब्द अधो अर्थ का वाचक है। जो अधोऽधो विस्तृत वस्तु के स्वरूप को जानने की शक्ति रखता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं। अथवा बाह्य अर्थ को साक्षात् करने का जो आत्मा का व्यापार करता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं, इससे आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता | 80 क्षेत्र की दृष्टि से अवधिज्ञान के भेद अवधि ज्ञान के तीन भेद किये गये है । (क) देशावधिज्ञान 2 (ख) परमावधिज्ञान (ग) सर्वावधिज्ञान । अवधिज्ञान के दो भेद हैं 1. भव प्रत्ययिक अवधिज्ञान, 2. गुण प्रत्यय अवधिज्ञान या क्षायोपशमिक अवधिज्ञान 4 1. भव प्रत्ययिक अवधिज्ञान जो अवधिज्ञान जन्म लेते ही प्रकट होता है, जिसके लिए संयम, तप, व्रत, नियम आदि अनुष्ठान की अपेक्षा नहीं रहती, उसे भव प्रत्ययिक अवधिज्ञान कहते हैं। यह अवधि ज्ञान देव और नारकों में होता है और जीवनपर्यन्त रहता है 1 85 2. गुण प्रत्यय अवधिज्ञान जो अवधिज्ञान संयम, नियम और व्रत आदि अनुष्ठान के बल से उत्पन्न होता है उसे गुण प्रत्यय अवधि ज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान मनुष्य और तिर्यंचों को होता है। अर्थात् मूल तथा उत्तर गुणों की विशिष्ट साधना से जो अवधिज्ञान हो, उसे क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहते हैं। 86 - - 4. मनः पर्यवज्ञान 7 किसी व्यक्ति के मन में अवस्थित अथवा हृदयगत भावों को जिस ज्ञान
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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