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आदिपुराण में ईश्वर सम्बन्धी विभिन्न धारणाये और रत्नत्रय विमर्श 315
के द्वारा जीव प्रत्यक्ष जानता है, वह मनः पर्यव ज्ञान होता है। 88 यह ज्ञान केवली संयमी को ही होता है।
यह ज्ञान मनुष्य गति के अतिरिक्त अन्य किसी गति में नहीं होता । मनुष्य में भी संयत मनुष्य को होता है। असंयत मनुष्य को नहीं । मनः पर्याय ज्ञान का अर्थ है - मनुष्यों के मन के चिन्तित अर्थ को जानने वाला ज्ञान । मन एक प्रकार का पौद्गलिक द्रव्य है। जब व्यक्ति किसी विषय विशेष का विचार करता है तब उसके मन का नाना प्रकार की पर्यायों में परिवर्तन होता रहता है। मनः पर्यायज्ञानी मन की उन विविध पर्यायों का साक्षात्कार करता है। 89 कि व्यक्ति इस समय में यह चिन्तन कर रहा है। केवल अनुमान से यह कल्पना करना कि अमुक व्यक्ति इस समय अमुक प्रकार की कल्पना कर रहा होगा । इस प्रकार के अनुमान को मनःपर्याय ज्ञान नहीं कहते। यह ज्ञान मन के प्रवर्तक या उत्तेजक पुद्गल द्रव्यों को साक्षात् जानने वाला है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो मन के परिणमन का आत्मा के द्वारा साक्षात् प्रत्यक्ष करके मानव के चिन्तित अर्थ को जान लेना मन: पर्यायज्ञान है। यह ज्ञान मन पूर्वक नहीं होता किन्तु आत्मपूर्वक होता है। मन तो उसका विषय है । ज्ञाता साक्षात् आत्मा है।
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चिन्ता, अचिन्ता और अर्धचिन्ता के विषयभूत अनेक भेदरूप पदार्थ को जो ज्ञान नर लोक के भीतर जानता है, वह मनः पर्यवज्ञान है।
मनः पर्यवज्ञान के भेद
मनः पर्यव ज्ञान के दो भेद होते है 92
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(क) ऋजुमति (ख) विपुलमति ।
(क) ऋजुमति मन: पर्यायज्ञान दूसरे के मन में स्थित पदार्थ के सामान्य स्वरूप को जानना, अर्थात् विषय को सामान्य रूप से जानना ऋजुमति मन: पर्याय ज्ञान कहलाता है।
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(ख) विपुलमति मनः पर्यायज्ञान दूसरे के मन में स्थित पदार्थ की अनेक पर्यायों को जानना अर्थात् चिन्तनीय वस्तु की पर्यायों को विविध विशेषताओं सहित स्फुटता से जानना विपुलमति मनः पर्यायज्ञान कहलाता है।
ऋजुमति और विपुलमति अन्तर
ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति ज्ञान अधिक विशुद्ध होता है। दोनों में अन्तर यह है कि ऋजुमति प्रतिपाति है अर्थात् उत्पन्न होने के पश्चात् जो ज्ञान