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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
सम्यग्दर्शन की सात भावनाएँ
संसार से भय होना, शान्त परिणाम होना, धीरता रखना, मूढ़ताओं का त्याग करना, गर्व न करना, श्रद्धा रखना, और दया करना ये सात सम्यग्दर्शन की भावनाएँ कही गई हैं। 64
सम्यग्ज्ञान और भेदोपभेद
जीव, अजीव, आस्रव, संवरादि पदार्थों के यथार्थ ( वास्तविक ) स्वरूप को प्रकाशित करने वाला तथा अज्ञानरूपी अन्धकार को दूर करने के अनन्तर उत्पन्न होने वाला ज्ञान, सम्यग्ज्ञान कहलाता है। 65
ज्ञान जीव का एक विशेष गुण है जो स्व तथा पर दोनों को जानने में समर्थ है। अनादि काल से मोहमिश्रित होने के कारण यह स्व तथा पर में भेद नहीं देख पाता । शरीरादि पर पदार्थों को ही निजस्वरूप मानता है इसी को मिथ्याज्ञान या अज्ञान कहा है। जब सम्यक्त्व के प्रभाव से पर पदार्थों से भिन्न निज स्वरूप को जानने लगता है, तब भेदज्ञान नाम पाता है, वही सम्यग्ज्ञान है। ज्ञान वास्तव में सम्यक् मिथ्या नहीं होता परन्तु सम्यक्त्व या मिथ्यात्व के सहकारीपने में सम्यक् मिथ्या नाम पाता है।
सम्यग्ज्ञान ही श्रेयोमार्ग की सिद्धि करने में समर्थ होने के कारण जीव को इष्ट है। जीव का अपना प्रतिभास तो निश्चय सम्यग्ज्ञान है और उसको प्रकट करने में निमित्त भूत आगम ज्ञान व्यवहार सम्यग्ज्ञान कहलाता है। जहाँ निश्चय सम्यग्ज्ञान ही वास्तव में मोक्ष का कारण है, व्यवहार सम्यग्ज्ञान नहीं 166
जिस ज्ञान के द्वारा नौ पदार्थों का या सप्त तत्त्वों का बोध हो, उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं 167
नय व प्रमाण के विकल्पपूर्वक जीवादि पदार्थों का यथार्थ ज्ञान सम्यग्ज्ञान
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संशय, विपयर्य और अनध्यवसाय का अभाव होने से उन्हीं जीवादि सात तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान होना ही सम्यग्ज्ञान कहलाता है 19
सम्यग्ज्ञान के प्रकार
सम्यक् ज्ञान के मूल रूप से पाँच भेद कहे गये हैं। 70