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________________ आदिपुराण में ईश्वर सम्बन्धी विभिन्न धारणाये और रत्नत्रय विमर्श 311 इसी प्रकार वह अपनी आत्मा के भाव राग-द्वेष कषायों के प्रवाह में बहते देखकर कम्पित हो उठता है, वह जानता है ये भाव मेरी आत्मा के लिए दु:ख के कारण हैं, अतः वह अपनी निज की परिणति को कषायों से हटाकर स्वात्मभाव में लगाता है। यह उसकी स्वात्म अनुकम्पा अथवा स्वदया है। (घ) आस्तिक्य आस्तिक्य का अभिप्राय है अस्तित्व अथवा सत्ता में विश्वास करना, किन्तु वह अस्तित्व मिथ्या, कल्पना की उड़ान मात्र न हो, सत्य हो, तथ्य हो, वास्तविक हो। आस्तिक्य गुण को आचाराङ्ग सूत्र में इस प्रकार प्रकट किया है-वह जीव आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी होता है। सम्यक्त्वी लोक-परलोक, पुनर्जन्म, आत्मा-परमात्मा, आम्रव, बन्ध, मोक्षादि तत्त्वों के बारे में जिन-प्रणीत सिद्धान्तों पर दृढ़ विश्वास एवं आस्था करता है, यही उसका आस्तिक्य गुण है।62 सम्यग्दर्शन की महत्ता सम्यग्दर्शन मोक्षरूपी प्रासाद का प्रथम सोपान है। सम्यग्दर्शन नरकादि दुर्गतियों के द्वार को रोकने वाले मजबूत किवाड़ हैं, धर्म रूपी वृक्ष की स्थिर जड़ है, स्वर्ग और मोक्षरूपी भवन का द्वार है और शीलरूपी रत्नहार के मध्य में जडित श्रेष्ठ रत्न है। रत्नों में सर्वोत्कृष्ट है। जो पुरुष एक मुहूर्त के लिए भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है वह संसार रूपी विष-लता को काट कर बहुत ही छोटी कर लेता है। अर्थात् वह अर्द्ध पुद्गल परावर्तन से अधिक समय तक संसार कानन में नहीं रहता। जिसके हृदय में सम्यग्दर्शन है वह उत्तम देव और उत्तम मनुष्य आयु का ही बन्ध करते हैं सम्यक्त्वी जीव नरक और तिर्यंच आयु का बन्ध नहीं करता। सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर अनन्त संसार भी सान्त (अन्त सहित) हो जाता है। जिस प्रकार शरीर के अंगों - हाथ, पैरादि में मस्तक प्रधान है, मुख में नेत्र प्रधान है, उसी प्रकार गणधर देव ने मोक्ष के समस्त अंगों में सम्यग्दर्शन को ही प्रधान अंग माना है। लोकमूढ़ता, पाषण्ड मूढ़ता और देव मूढ़ता का परित्याग कर देते हैं। वे मिथ्यादृष्टि को प्राप्त नहीं करते। संसाररूपी समुद्र से पार होने के लिए सम्यग्दर्शन नौका के समान पार उतारने वाला है। सब पृथ्वियों में रत्नप्रभा पृथ्वी को छोड़कर नीचे की छह पृथ्वियों में भवनवासी, वाणव्यन्तर और ज्योतिषक देवों में तथा अन्य नीच पर्यायों में सम्यक् दृष्टि जीवों की उत्पत्ति नहीं होती है।63
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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