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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण सम्यक्त्व के बाह्य लक्षण
कोई व्यक्ति सम्यक्त्वी है या नहीं, यह उसके बाह्य व्यवहार से भी जाना जा सकता है। सम्यक्त्व के प्रभाव से आत्मा में जो आन्तरिक परिवर्तन होते हैं, वृत्ति प्रवृत्ति-रुचियों में अन्तर आता है वह उसके बाह्य व्यवहार में परिलक्षित होने लगता है। ऐसे मुख्य चार गुण कहे जाते हैं -
(क) प्रशम (ख) संवेग (निर्वेद) (ग) अनुकम्पा (घ) आस्तिक्या" श्रद्धा, रुचि, स्पर्श तथा प्रत्यय ये सम्यग्दर्शन के पर्याय कहे जाते हैं।
(क) प्रशम
"शम" शब्द प्राकृत के "सम" शब्द का संस्कृत रूपान्तर है। प्राकृत "सम" के संस्कृत में तीन रूप बनते हैं - सम, शम और श्रम।
"सम" का अभिप्राय है - समता। सभी प्राणियों को अपने ही समान समझना। "शम" का अभिप्राय क्रोधादि कषायों का निग्रह, कषायों का अभाव होना तथा दुराग्रह और मिथ्याग्रह का शमन करना और सत्याग्राही मनोवृत्ति को जागृत करना। श्रम का अर्थ पुरुषार्थ और परिश्रम दोनों ही रूपों को द्योतित करता है। सम्यक्त्वी अपनी आत्मा की उन्नति के लिए किसी अन्य की सहायता की इच्छा न करके, स्वयं ही पुरुषार्थ करता है और परिश्रम करके मोक्ष मार्ग पर अग्रसर होता है। सम्यक्त्वी में "सम" शब्द से द्योतित तीनों गुण होते हैं।59
(ख) संवेग
संवेग का अभिप्राय है - मोक्ष प्राप्ति की इच्छा, आत्मा परिणामों का वेग मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर होना संवेग है। इसके विपरीत संसार एवं सांसारिक क्रिया-कलापों की ओर विमुखता अरुचि का भान होना निर्वेद है। सम्यक्त्वी सांसारिक क्रियाओं को कर्तव्य समझकर करता है, उसकी आन्तरिक इच्छा संसार में नहीं होती, अपितु उसके हृदय में तो सदैव मुक्ति की भावना रहती है।60
(ग) अनुकम्पा
अनुकम्पा का अभिप्राय है - दया करना। पीड़ित प्राणियों को देखकर सम्यक्त्वी के हृदय में अनुकम्पा आ जाती है, वह उसकी पीड़ा मिटाने का प्रयास करता है कि जैसे मैं सुखी हूँ वैसे सभी सुखी हों।