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________________ आदिपुराण में ईश्वर सम्बन्धी विभिन्न धारणाये और रत्नत्रय विमर्श 309 2. धर्म मूढ़ता धर्म कार्यों में आडम्बर, ढोंग, प्रपंच करना और उस धर्म को कल्याणकारी, मोक्षदायी धर्म मानना धर्म मूढ़ता है | 47 - 5. उपगूहन +8 गुणीजनों के गुणों की प्रशंसा करना, उनके प्रति प्रमोद भाव रखना तथा अपने गुणों को यथासम्भव छुपाकर रखना, अपने गुणों का प्रचार न करना उपगूहन है। 49 6. स्थिरीकरण 50 सम्यक्त्व अथवा चारित्र से डिगते हुए साधर्मी भाइयों को धर्म में पुन: स्थिर करना तथा स्वयं अपनी आत्मा के परिणाम भी, आत्म भाव में स्थिर करना, अपनी आत्मा का स्थिरीकरण है। 1 7. वात्सल्य 2 साधर्मी भाइयों के प्रति निःस्वार्थ स्नेह भाव रखना, प्राणीमात्र के प्रति करुणा रखना व निजत्व की अनुभूति करना वात्सल्य है। जैसे गो अपने वत्स (बछड़े) के प्रति स्नेह रखती है, उसी प्रकार अपनी आत्मा के हितकारी ज्ञानदर्शन चारित्रादि भावों के प्रति विशेष अनुराग रखना स्वात्म वात्सल्य है। 3 8. प्रभावना 54 जैनधर्म एवं संघ की उन्नति - अभ्युदय के लिए चिन्तन करना तथा ऐसे प्रयत्न करना, जिनसे धर्म का प्रचार हो, दूसरे लोग धर्म से प्रभावित हों तथा रत्नत्रय की प्रकृष्ट भावना से अपनी आत्मा को भावित प्रभावित करना प्रभावना है। सम्यग्दर्शन मोक्ष जाने का मूल उपाय है। इसी के कारण ज्ञान और चारित्र भी सम्यक् होते हैं। जिस प्रकार शरीर के आठ मुख्य अंग है, उसी प्रकार सम्यक्त्व के उपर्युक्त आठ अंग भी प्रमुख हैं। जैसे- शरीर में आँख नाकादि एक भी अंग की कमी होने से शरीर की सुन्दरता एवं उपयोगिता कम हो जाती है, उसी प्रकार सम्यक्त्व का एक भी अंग कम होने से सम्यक्त्व की महिमा और उसकी तेजस्विता क्षीण हो जाती है। 55
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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