SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदिपुराण में ईश्वर सम्बन्धी विभिन्न धारणाये और रत्नत्रय विमर्श 303 है तो ईश्वर को सृष्टि बनाने की क्या आवश्यकता थी? अगर अकृत्कृत्य मानें तो सम्पूर्ण लोक को बनाने में समर्थ नहीं हो सकता। जिस प्रकार अकृत्कृत्य कुम्हार केवल घटादि का ही निर्माण कर सकता है, संसार का नहीं। अगर ईश्वर निराकार है, निष्क्रिय, सर्वव्यापी और विकाररहित है तो ऐसे ईश्वर से साकार पदार्थों की उत्पत्ति नहीं हो सकती। किसी कार्य को करने के लिए हस्त-पादादि कर्ता को कोई क्रिया अवश्य करनी पड़ती है और क्रिया कोई शरीरधारी ही कर सकता है और नहीं। ईश्वर को सक्रिय मानें तो इस लोक को बनाना असम्भव है। क्योंकि क्रिया वही करेगा जिसके अधिष्ठान से कुछ क्षेत्र बाकी रहा हो परन्तु ईश्वर तो सर्वव्यापी है। अगर ईश्वर विकाररहित है तो सृष्टि बनाने की इच्छा ही नहीं होगी। यदि विचार करें ईश्वर कृत्कृत्य है वह धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की अभिलाषा नहीं रखता ऐसे ईश्वर को सृष्टि बनाने से क्या लाभ? सृष्टि की रचना को ईश्वर की क्रीड़ा-मात्र मानने पर ईश्वर को बड़ा मोही, अज्ञानी, मानना पड़ेगा तथा निष्प्रयोजन ही कोई उत्पादक मानना पड़ेगा जोकि एक मूर्ख का भी नहीं होता। ____ अगर यह कहें ईश्वर कर्मों के अनुसार जीवों के शरीर की रचना करता है, जीव जैसा कर्म करता है वैसे ही उसके शरीर की रचना बनती है तो ईश्वर नहीं ठहरता। वह कर्मों की अपेक्षा करने से जुलाहे की तरह परतन्त्र हो जायेगा। परतन्त्र होने से ईश्वर नहीं कहलायेगा। ईश्वर तो सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र हुआ करता है।' जीव अपने कर्मों के अनुसार सुख-दुःख भोगता है तो ईश्वर की पुष्टि व्यर्थ लगती है। ईश्वर बड़ा दयालु है, उपकार के लिए सृष्टि की रचना करता है तो ईश्वर को सभी जीवों को सुखी बनाना चाहिए था अर्थात् दु:खरहित बनाना था। संसार का बहुत अधिक भाग ऐसा है जो दु:खी है। दयालु होने पर किसी को दु:खी और किसी को सुखी क्यों बनाता है? इसके साथ ही यह भी प्रश्न है कि यह संसार सत् था या असत् सत् होने पर उसका निर्माण व्यर्थ होगा क्योंकि सत् त्रैकाल बाह्य होता है यदि असत् है तो असत् की उत्पत्ति नहीं की जा सकती। जैसे-आकाश कमल की उत्पत्ति नहीं हो सकती।' इसके साथ ही यदि ईश्वर ही लोक को बनाने वाला है, समस्त जीव ईश्वर की सन्तान है, ईश्वर जन्म देने और संहार करने वाला भी है तो ईश्वर को अपनी सन्तान को नष्ट करने का घोर पाप भी लगता है। यदि ईश्वर दुष्ट जीवों को नष्ट करने के लिए संहार करता है तो इससे अच्छा है उसे पैदा ही न करता। अब बात यह है कि शरीरादि की उत्पत्ति किसी बुद्धिमान कारण से
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy