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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
ही हो सकती है। उसी प्रकार सृष्टि की रचना भी किसी विशेष बुद्धिमान पुरुष अर्थात् ईश्वर द्वारा ही हो सकती है। यह हेतु ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करने में समर्थ नहीं। क्योंकि विशेष प्रकार की रचना अन्य विशेष प्रकार से ही हो सकती है। इस संसार में शरीर, इन्द्रियाँ सुख-दुःख आदि जितने भी अनेक प्रकार के पदार्थ देखे जाते हैं उन सबकी उत्पत्ति चेतन- - आत्मा के साथ सम्बन्ध रखने वाले कर्मरूपी विधाता के द्वारा ही होती है। इसलिए प्रतिज्ञापूर्वक कह सकते हैं कि संसारी जीवों के अंग- उपांग आदि में जो विचित्रता पायी जाती है वह सब निर्माण नामक कर्मरूपी विधाता की कुशलता से ही उत्पन्न होती है । इन कर्मों की विचित्रता से अनेक रूपता को प्राप्त हुआ यह लोक ही इस बात को सिद्ध कर देता है कि शरीर, इन्द्रिय आदि अनेक रूपधारी संसार का कर्त्ता संसारी जीवों की आत्माएँ ही हैं और कर्म उनके सहायक हैं - अर्थात् ये संसारी जीव ही अपने कर्म के उदय से प्रेरित होकर शरीर आदि संसार की सृष्टि करते हैं।
इसके अतिरिक्त अनेक ऐसे दर्शन है जो सृष्टि निर्माण में ईश्वर को अनावश्यक समझते हैं उनमें से सांख्य के माननीय आचार्यों की भी सम्मति है कि जगत की रचना तथा कर्मफल प्रदान आदि कार्यों के लिए ईश्वर की सत्ता मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। कार्यभूत जगत का कर्त्ता मानना तो उचित है पर ईश्वर में उसकी कर्त्तृता सिद्ध नहीं हो सकती । ईश्वर स्वयं निर्व्यापार-व्यापारहीन है। अतः इस परिवर्तनशील जगत् का वह अक्रियाशील कारण कभी नहीं हो सकता । किन्तु विज्ञानभिक्षु इसे मानने के लिए तैयार नहीं है । वे सांख्य को निरीश्वर नहीं मानते। कर्तृत्व शक्ति सम्पन्न ईश्वर की सिद्धि भले न हो, परन्तु ईश्वर जगत का साक्षी है जिसके सन्निधिमात्र से प्रकृति जगत के व्यापार में निरत होती है - परिणाम धारण कर जगत को रचना में प्रवृत्त होती है, जिस प्रकार चुम्बक अपने सान्निध्य मात्र से लोहे में गति पैदा करता है। 12
वैशेषिक दर्शन में ईश्वर की सत्ता के विषय में दार्शनिकों में बड़ा मतभेद है। वैशेषिक सूत्र में केवल दो सूत्र ईश्वर की ओर संकेत करते हैं। परन्तु इनकी व्याख्या में ऐकमत्य का अभाव है। तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाणयम् (वै.सू. 1.1.3) में ' तद' शब्द ईश्वर का बोधक माना गया है। परन्तु वह धर्म का भी प्रतिपादक हो सकता है। 'अस्मद्विशिष्ट' शब्द ईश्वर के समान योगियों का बोधक माना जा सकता है। (वै.सू. 2.118 )
ब्र.सू. ( 3.2 ) अन्तिम फलाधिकरण में आचार्य बादरायण ईश्वर को कर्मफल का दाता मानते हैं परन्तु जैमिनि के अनुसार यज्ञ से ही तत्त्फल की