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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
षष्ठ अध्याय
आदिपुराण में ईश्वर सम्बन्धी विभिन्न
धारणायें और रत्नत्रय विमर्श
ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं उपर्युक्त आठ तत्त्वों की मीमांसा से यह स्पष्ट हो गया कि सृष्टि निर्माण में किसी अन्य तत्त्व (ईश्वर आदि) अथवा शक्ति का योगदान रहता हो - यह बात परिलक्षित नहीं होती। क्योंकि जीवादि पदार्थों के निवास करने के लिए इस लोक को ईश्वर ने नहीं बनाया। यह लोक अकृत्रिम है, नित्य है - हमेशा रहने वाला है। यह लोक आकाश के ठीक मध्य-भाग में स्थित है। कई लोगों का विचार है कि लोक को बनाने वाला कोई अवश्य है। अगर बनाने वाला है तो सष्टि बनाने से पहले वह कहाँ रहता था। किस स्थान पर सृष्टि की रचना की। यदि माने आधाररहित और नित्य है तो उसने सृष्टि को कैसे बनाया और बनाकर किस स्थान पर रखा।'
दूसरी बात यह है कि ईश्वर एक है, शरीर रहित है तो एक ईश्वर अनेक रूपों वाले संसार की रचना करने में समर्थ नहीं हो सकता तथा शरीररहित अमूर्तिक से मूर्ति वस्तुओं की रचना नहीं हो सकती। जैसे-शरीरधारी कुम्हार बना सकता है। न कि बिना शरीर के। एक विचार यह है कि संसार में कोई पदार्थ सामग्री कारण के बिना नहीं बनाये जा सकते। तब ईश्वर कारण-सामग्री के बिना लोक को कैसे बना सकेगा? यदि पहले कारण-सामग्री को बनाता है और बाद में लोक को बनाता है तो अनवस्था दोष आता है।
यदि वह कारण-सामग्री स्वभाव से ही सिद्ध माने तो यह बात चरितार्थ नहीं होती है ऐसी स्थिति में ईश्वर की अकारणता स्वतः सिद्ध है। यदि कहें कि ईश्वर स्वतन्त्र है तथा सृष्टि बनाने में समर्थ है इसलिए सामग्री के बिना ही इच्छामात्र से लोक को बना लेता है ऐसा मानना उचित नहीं। ईश्वर कृतकृत्य है अर्थात् सब कार्य पूर्ण कर चुका है कोई कार्य शेष नहीं रह गया