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आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप... 289
294. संकल्पवशगो मूढो वस्त्विष्टानिष्टता नयेत्। रागद्वेषौ तत स्ताभ्यां बन्धं दुर्मोचमश्नुते।।
- आ.पु. 21.24 295. संकल्पो मानसी वृत्तिर्विषयेष्वनुतर्षिणी। सैव दुष्प्रणिधानं त्यादपध्यानमतो विदुः।।
-- आ.पु. 21.25 296. तरमादाशयशुद्धयर्थमिष्टा तत्त्वार्थभावना। ज्ञानशुद्धिरतस्तस्यां ध्यानशुद्धिरुदाहृता।।
- आ.पु. 21-26 297. ऋते भवभथार्तं स्याद् ध्यानमाद्यं चतुर्विधम्। इष्टानवाप्त्यनिष्टाप्ति निदानासात हेतुकम्।।
-- आ.पु. 21.31 (टीका) 298. विप्रयोगे मनोज्ञस्य तत्संयोगानुतर्षणम्। अमनोज्ञार्थसंयोगे तद्धियोगानुचिन्तनम्।।
- आ.पु. 21.32 (टीका) 299. निदानं भोगकाङ्क्षोत्थं संक्लिष्टस्यान्यभोगतः। स्मृत्यन्वाहरणं चैव वेदनातस्य तत्क्षये।।
- आ.पु. 21.33 (टीका) 300. आ.पु. - 21.36-37 301. प्रमादाधिष्ठितं तत्तु षड्गुणस्थानसंश्रितम्।।
--- आ.पु. 21.37 302. आ.पु. - 21.38 (टीका);
(लेश्या शब्द "लिश्" धातु से बना है। लिश् का अर्थ है - चिपकना, संबद्ध होना अर्थात जिसके कर्म आत्मा के साथ चिपकते हैं, बंधते हैं, उसे लेश्या कहते हैं।
___ -- नि.प्र. 12.1 303. सोऽत्यन्तविषयासक्तिकृतकौटिल्यचेष्टितः। बबन्ध तीव्रसंक्लेशात् तिरश्चामायुरा-धीः।।
- आ.पु. 5.120 304. क्षायोपशमिकोऽस्य स्याद् भावस्तिर्यग्गतिः फलम्। तस्माद् दुर्ध्यानमार्ताख्यं हेयं श्रेयोऽर्थिनामिदम्।।
- आ.पु. 21.39 305. मूर्छा कौशील्यकैनाश्च कौसीद्यान्यतिगृध्नुता। भयोटे गानुशोकश्च लिङ्गान्यातेस्मृतानि वै।।
- आ.पु. 21.40 306. बाह्यं च लिङ्गमार्तस्य गात्रग्ला निर्विवर्णता। हस्तन्यस्तकपोलत्वं साश्रुतान्यच्च तादृशम्।।
-- आ.पु. 21.41 307. प्राणिनां रोदनाद् रुद्रः क्रूरः सत्त्वेषु निघृणः।
पुमांस्तत्र भवं रौद्रं विद्धि ध्यानं चतुर्विधम्।। - आ.पु. 21.42; 9.29 (वि.) 308. हिंसा नृतस्तेया विषयसंरक्षणेऽभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः। - त.सू. 9.36 वि. 309. वधबन्धाभि संधानमङ्गच्छेदोपतापने। दण्ड पारुष्यमित्यादिहिंसानन्दः स्मृतो बुधैः।।
-- आ.पु. 21.45 310. मृषानन्दो मृषावादैरति सन्धानचिन्तनम्। वाक् पारुष्यादिलिङ्ग तद् द्वितीय रौद्रमिष्यते।।
-- आ.पु. 21.50 311. स्तेयानन्दः परद्रव्यहरणे स्मृतियोजनम्।
-- आ.पु. 21.51