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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
187. त.सू. - (के.मु.) 9.18 (वि.) 188. निर्जीयते निरस्यते यथा निरसनमात्रं वा निर्जरा। निर्जरेव निर्जरा। - रा.वा. 4.12.27 189. सर्व. सि. 1.4.17 190. कर्मणां विपाकतस्तपसा व शाटो निर्जरा। - त.भा.(हरिभद्रीय वृत्ति) 1.4 191. जै.सि.को. - भा. 2 पृ. 357 192. त.सू. (के.मु.) 9.19 वि. 193. स.सि. 9.19 412.11 194. मोक्ष पंचाशत् 48 195. जै.द. (न्या.वि.श्री.) पृ. 159 196. त.सू. - (के.मु.) 9.19-21 (वि.) 197. ततः संयमसिद्धयर्थस तपो द्वादशात्मकम्।
- आ.पु. 20.174 198. बाह्यशरीररयपरिशोषणेन कर्मक्षपणहेतुत्वादिति। - समवायांग 6, अभदेववृत्ति 199. त.सू. - (के.मु.) 9.19--21 (वि.) 200. जै.द. - (न्या.वि.श्री.), पृ. 155-156 201. वही 202. जै.द. (न्या.वि.श्री.) - पृ. 157. 203. तपोऽनशनमाद्यस्याद् द्वितीयमवमोदरम्।
तृतीयं वृत्तिसंख्यानं रसत्यागश्चतुर्थकम्।। पञ्चमं तनुसंतापो विविक्तशयनासनम्। षष्ठमित्यस्य बाह्यानि तपास्यासन् महाधृते।।
- आ.पु. 18.67-68 204. अनशनावमौदर्यवृत्तिपसिंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशाः बाह्यं तपः।
- त. सू. 9.19 205. आ.पु. 6.142 206. त.सू. - (के.मु.) 9.20 (वि.) 207. वही 208. वही 209. आ.पु. - 7.31, 44 210. अन्तकृत. सू. 8.10 वि. 211. वही. 8.2 212. आ.पु. 7.39 213. अन्तकृत.सू. ४.2 वि. 214. वही, 8.9