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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
39. शुभ:पुण्यस्य, अशुभः पापस्य।
- त.सू. 6.3-4 40. स्था.सू., 5.2.33 (वि.) 41. स्था.सू., 5.2.33 (वि.) 42. मिथ्यात्वमव्रताचारः प्रमादाः सकषायता। योगाः शुभाशुभजन्तोः कर्मणां बन्धहेत्वः।।
- आ.पु. 47.309; मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगाबन्धहेतवः।
- त.सू. 8.1 43. अदेवे देवबुद्धिर्या गुरुधीरगुरौ च या। अधर्मधर्मबुद्धिश्च मिथ्यात्वं तद्विपर्ययात्।। - यो.श. (द्वि.प्र.) गा. 2;
त.सू. 8.1 वि. 44. मिथ्याज्ञानमविद्या स्याद् अतत्त्वे तत्त्वभावना।
आप्तोपज्ञं भवेतत्त्व माप्तौ दोषावृत्ति क्षयात्। तस्मात्तन्मतमभ्यस्येन्मनोमलमपासितुम्।।
- आ.पु. 42.32-33 45. मिथ्यात्वं पञ्चधा।
- आ.पु. 47.310 46. यो.श. (द्वि.प्र.) गा. 2 47. त.सू. (के.मु.) 8.1 (वि.) 48. जै.सि.को. (भा.1) पृ. 212 49. जै.द.स्व और वि.
-(आ.दे.मु.), पृ. 148 50. मिथ्यात्वं पञ्चधा साष्टशतञ्चाऽविरतिर्मता।
- आ.पु. 47.310 .. 51 आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषस्त्रिस्त्रिस्त्रिशचतुश्चैकशः।
- सर्वा.सि. 6.8 52. जै.द. स्व. और. वि. (आ.दे.मु.) पृ. 198 53. स्था.सू. 6.28 54. त.सू. (के.मु.) 8.1 वि. 55. वही। 56. त.सू. (के.मु.) 8.1 (वि.) 57. कष्यन्ते प्राणी विविधदुःखैरस्मिन्निति कषः संसारः तस्य आयो लाभो येभ्यस्ते कषायाः।
__ - जै.द.स्व और वि. (दे.मु.) पृ. 199 58. कषायाश्चतुर्विधाः ।
- आ.पु. 47.310 59. दुःख शास्य कर्मक्षेत्रं कृषन्ति फलवत् कुर्वन्तीति। कषायाः क्रोधमानमायालोभाः।
धवला 6.41 60. सुहदुक्ख बहुसस्सं कम्मक्खित्तं कसेइ जीवस्स। संसारगदी मेरं तेण कसाओतिणं विति।
पं.सं. प्रा. 1.109 61. त.सू. (के.मु.) 8.1 (वि.);