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________________ 276 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण जैसे धूप में कपड़ा फैलाकर डालने से शीघ्र सूख जाता है लेकिन उसी कपड़े में पानी अधिक हो और उसको अच्छी तरह से फैलाया न जाये तो सूखने में देर लगती है। इसी प्रकार बिना ज्ञान एवं संयम से जो तप, दान, व्रत आदि क्रियाएँ की जाती हैं उनसे होने वाली जो निर्जरा होती है वह अकाम निर्जरा है। किन्तु निर्जरा निमित्त भेद से बारह प्रकार की बतायी गयी है - जैसे अग्नि एक रूप होने पर भी निमित्त के भेद से काष्ठाग्नि, पाषाणाग्नि - इस प्रकार पृथक्-पृथक् संज्ञा को प्राप्त हो अनेक प्रकार की होती है, वैसे ही कर्मपरिशाटन रूप निर्जरा वास्तव में एक ही है पर अनशन आदि तप हेतुओं की अपेक्षा से बारह प्रकार की कही जाती है। साधक का एकमात्र लक्ष्य अनादिकाल से चले आ रहे कर्म-बन्धन से मुक्ति प्राप्त करना है और सांसारिक सुखादि की यत्किंचित् प्राप्ति की अभिलाषा में न उलझकर मुक्ति के लिए प्रयास करना है। एतदर्थ ही कहा गया है यश, कीर्ति, सुख एवं परलोक में वैभव आदि पाने के लिए तप, दान, व्रत, ध्यान, ज्ञान आदि नहीं करना चाहिए किन्तु एकान्त निर्जरा के लिए तप, दान, व्रत का पालन करना चाहिए। आदिपुराण में निर्जरा के उत्कृष्ट साधनों में तप को व्रतों के पालन को श्रेष्ठ साधन बताया गया है। नि:स्वार्थ भाव से बिना यश मान कीर्ति से कर्मों की निर्जरा हेतु किया गया तप कर्मों की महान् निर्जरा करता है। आदिपुराण में कई ऐसे तपस्वी साधकों का वर्णन है। जिन्होंने कठिन से कठिन दीर्घ तपस्या जैसे कनकावली, रत्नावली आदि करके अनेक ऋद्धियों, लब्धियों को प्राप्त किया है। संदर्भ -- आ.पु. 21.108 - त.सू. 6.3 -- त.सू. 6.4 1. अहंमानवो बन्धः संवरो निर्जरा क्षयः। कर्मणामिति तत्त्वार्था ध्येयाः सप्त नवाथवा।। 2. शुभः पुण्यस्य। ' 3. अशुभः पापस्य। 4. जै.ध.एक.अनु. (डा. रा.मु.) अ.2, पृ. 25 5. आ.पु. 41.105 6. स्था.सू. 9.1.16 (वि.) 7. वही। 8. वही।
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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