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आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप... 275
समीक्षा
बन्धे हुए कर्मों के प्रदेश पिण्ड के गलने का नाम निर्जरा है। परिपाक से अथवा तप के द्वारा कर्मों का आत्मा से पृथक् होना निर्जरा है। अथवा जिन कर्मों को भोगा जा चुका है, उन्हें आत्मा से अलग होने को ही निर्जरा कहा जाता है।
बोलचाल की भाषा में यों कह सकते हैं कि मैले कपड़े में साबुन लगाते ही मैल साफ नहीं हो जाता। जैसे-जैसे साबुन का झाग कपड़े के तार-तार में पहुँचता है वैसे-वैसे, धीरे-धीरे मैल दूर होनी आरम्भ हो जाती है यही बात निर्जरा के लिए भी समझनी चाहिए। साधक ने तपादि की साधना की, संवर से नवीन कर्मों को आने से रोक दिया किन्तु पूर्वबद्ध कर्ममल की मलीनता शनैःशनैः दूर हो जाती है। पूर्णशुद्ध अवस्था प्राप्त हो जाना मोक्ष कहलाता है।
निर्जरा शुद्धता की प्राप्ति के मार्ग में सीढ़ियों के समान है। सीढियों पर क्रम-क्रम से कदम रखने पर मंजिल पर पहुँचा जाता है। वैसे ही क्रमशः निर्जरा कर मोक्ष अवस्था प्राप्त की जाती है।
अपने साथ स्वयं कर्मों का उदय में आकर झड़ते रहना सविपाक है तथा तप द्वारा समय से पहले ही कर्मों का झड़ना अविपाक निर्जरा है। सर्वार्थसिद्धि में भी निर्जरा को दो प्रकार का कहा है - सविपाकजा निर्जरा, अविपाकजा निर्जरा।
क्रम से परिपाक काल को प्राप्त हुए और अनुभवरूपी उदयावली के स्रोत में प्रविष्ट हुए ऐसे शुभाशुभ कर्मों का फल देकर जो निवृत्ति होती है वह सपिवाकजा निर्जरा है तथा आम और कटहल को औपक्रमिक क्रिया विशेष के द्वारा जिस प्रकार अकाल में पका लेते हैं, उसी प्रकार जिसका विपाककाल अभी नहीं प्राप्त हुआ है तथा जो उदयावली में प्रविष्ट कराके अनुभव किया जाता है वह अविपाकजा निर्जरा है।
वाचक उमास्वाति ने भी निर्जरा को दो प्रकार का कहा है - एक अबुद्धिपूर्वक और कुशलमूल। नरकादि गतियों में जो कर्मों के फल का अनुभव न किसी तरह के बुद्धिपूर्वक प्रयोग के बिना हुआ करता है उसको अबुद्धिपूर्वक निर्जरा कहते हैं। तप और परीषहजय कृत निर्जरा को कुशलमूल निर्जरा कहा जाता है।
आत्म-शुद्धि की दृष्टि से कर्म निर्जरा के लिये जो विवेक पूर्वक तप, ऋद्धि, दान, व्रत आदि की साधना की जाती है उससे सकाम निर्जरा होती है।