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________________ 272 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण है और अष्ट मूलगुणादि भी निरतिचार पालने लगता है।560 अथवा दर्शन प्रतिमा वाला संसार और शरीर भोगों से विरक्त पाँचों परमेष्ठियों के चरणकमलों का भक्त रहता है और सम्यग्दर्शन से विशुद्ध रहता है।561 जो पुरुष शंकादि दोषों से निर्दोष संवेगादि गुणों से संयुक्त सम्यग्दर्शन को धारण करता है, वह सम्यग्दृष्टि (दर्शन प्रतिमा वाला) कहा गया है।562 2. व्रत प्रतिमा जो शल्य रहित होता हुआ अतिचार रहित पाँचों अणुव्रतों को तथा शील सप्तक अर्थात् तीन गुणवतों और चार शिक्षाव्रतों को भी धारण करता है, निरतिचार रूप पालन करता है वह व्रत प्रतिमा है। दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र में बताया गया है जो श्रावक शीलवृत, गुणव्रत, प्राणतिपातादि विरमण, प्रत्याख्यान, और पोषधोपवास आदि का सम्यक परिपालन करना ही व्रत प्रतिमा कहा गया है।563 3. सामायिक प्रतिमा जो श्रावक कायोत्सर्ग में स्थित होकर लाभ-अलाभ को, शत्रु-मित्र को, इष्ट वियोग व अनिष्ट संयोग को, तृण-कंचन को, चन्दन और कुठार को समभाव से देखता है और मन में पंच नमस्कार मन्त्र को धारण कर उत्तम अष्टप्रतिहार्यों से संयुक्त अर्हन्तजिन के स्वरूप को और सिद्ध भगवान के स्वरूप का ध्यान करता है, अथवा संवेग सहित अविचल अंग होकर एक क्षण का भी उत्तम ध्यान करता है, तो उसकी उत्तम सामायिक प्रतिमा होती है।564 उपासक दृशाङ्ग सूत्र में सम्यग्दर्शन और अणुव्रत स्वीकार करने के पश्चात् प्रतिदिन तीन बार सामायिक करना सामायिक प्रतिमा है। 4. पौषधोपवास प्रतिमा जो महीने-महीने चारों ही पर्वो में (दो अष्टमी और चतुर्दशी के दिनों में) अपनी शक्ति को न छिपाकर शुभ ध्यान में तत्पर होता हुआ यदि अन्त में पौषधपूर्वक उपवास करता है, वह चौथी पौषधोपवास प्रतिमा का धारी है।565 5. सचित त्याग प्रतिमा आत्मा के चैतन्य विशेष रूप परिणाम को चित्त कहते हैं। जो उसके साथ रहता है, वह सचित कहलाता है। अथवा जो चित्त सहित है वह सचित कहलाता है।
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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