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________________ आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप... 271 का उत्तरदायित्व सन्तान को सौंप देता है और पौषधशाला में जाकर समय धर्मानुष्ठान में बिताने लगता है। उस समय वह उत्तरोत्तर साधुता की ओर बढ़ता है। कुछ दिनों तक अपने घर से भोजन मंगवाता है और फिर उसका भी त्याग करके भिक्षा पर निर्वाह करने लगता है। इन व्रतों को ग्यारह प्रतिमाओं के रूप में प्रकट किया गया है। प्रतिमा शब्द का अर्थ है सादृश्य। जब श्रावक साधु के सदृश होने के लिए प्रयत्नशील होता है तो उसे प्रतिमा कहा जाता है। 555 साधारणतः प्रतिमा का अर्थ है - प्रतिज्ञा विशेष । यह प्रतिज्ञा विशेष, व्रत विशेष के नाम से जानी जाती है। इन प्रतिमाओं को जीवन में आचरण करने से श्रावक भी श्रमण के समान हो जाता है, कारण वह जैसे-जैसे साधना में तल्लीन होता जाता है, वैसे-वैसे उसका आध्यात्मिक विकास भी होता जाता है। 556 इस विकास के लिए आचार्य जिनसेन जी ने आदिपुराण में ग्यारह प्रतिमाओं का विधान किया गया है। श्रावक विवेकवान् विरक्तचित्त अणुव्रती गृहस्थ को श्रावक कहते हैं। इसमें वैराग्य की प्रकर्षता से उत्तरोत्तर ग्यारह श्रेणियाँ हैं, जिन्हें ग्यारह प्रतिमाएँ कहते हैं । शक्तियों को न छिपाता हुआ वह निचली दशा से क्रमपूर्वक उठता चला जाता है । अन्तिम श्रेणी में इसका रूप साधु से किंचत् न्यून रहता है। गृहस्थ दशा में भी विवेकपूर्वक जीवन बिताने के लिए अनेक क्रियाओं का निर्देश किया गया है। 557 उपर्युक्त ग्यारह प्रतिमाएँ इस प्रकार हैं उपासकदृशाङ्ग सूत्र में भी श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन किया गया है। 1. दर्शन प्रतिमा 2. व्रत प्रतिमा 3. सामायिक प्रतिमा 4. पौषध प्रतिमा 5. सचित त्याग प्रतिमा 6. दिवा मैथुन त्याग प्रतिमा 7. ब्रह्मचर्य प्रतिमा 8. आरम्भ त्याग प्रतिमा 9. परिग्रह प्रतिमा 10 अनुमति प्रतिमा 11. उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा। 558 1. दर्शन प्रतिमा दर्शन का अर्थ है श्रद्धा या सम्यक् दृष्टि। आत्मविकास के लिए सबसे पहले श्रद्धा का होना आवश्यक है। दर्शन के साथ प्रतिमा पद के लग जाने पर इसका अर्थ है - वीतरागदेव, पंचमहाव्रत धारी गुरु और वीतरागी साधु द्वारा बताए गए मार्ग पर दृढ़ विश्वास का होना 1559 श्रावक की ग्यारह भूमिकाओं में से पहली का नाम दर्शन प्रतिमा है। इस भूमिका में यद्यपि वह यम रूप से बारह व्रतों को धारण नहीं कर पाता। पर अभ्यास रूप से उनका पालन करता है। सम्यग्दर्शन में अत्यन्त दृढ़ हो जाता
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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