SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण 270 (ख) देशवकासिक व्रत दिव्रत में ग्रहण की हुई दिशाओं की सीमा तथा अन्य सभी व्रतों में ली हुई मर्यादाओं को और भी मर्यादित कर देना साथ ही देश (आंशिक) पौषध करना, दया पालना, संवर करना देशवकाशिक व्रत है। 551 (ग) पौषधव्रत धर्म का पौषध करने वाला होने से यह व्रत पौषधव्रत है। इसमें आहार, शरीर, श्रृंगार, व्यापारादि सभी कार्यों को त्याग कर एक दिन-रात (अष्ट प्रहर) तक उपाश्रयादि शान्त स्थान में रहकर धर्मचिन्तन, आत्म गुणों का चिन्तन, पंचपरमेष्ठी गुण स्मरण करना। अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा एवं अमावस्या इन चारों पर्व तिथियों में आहार, शरीर, अब्रह्मचर्य तथा सावद्यकर्म का त्याग करना पौष व्रत है। 552 - (घ) अतिथि संविभागव्रत जिसके आने की कोई तिथि नहीं उसे अतिथि कहते हैं अर्थात् जिसके आने का कोई काल (समय) नहीं। वह अतिथि है। अतिथि के लिए विभाग करना अतिथि संविभाग है। वह चार प्रकार का है - भिक्षा, उपकरण, औषध और प्रतिश्रय अर्थात् रहने का स्थान जो साधक मोक्ष के लिए बद्धकक्ष है, संयम पालने में तत्पर है ऐसे अतिथि के लिए शुद्ध मन से निर्दोष भिक्षा देना, धर्म के उपकरण देना, औषधि देना, श्रद्धा पूर्वकस्थान देना, यह सभी अतिथि संविभाग व्रत में आते हैं। 553 द्वार पर आये अतिथि ( त्यागी) को अपने न्यायोपार्जित धन में से विधिपूर्वक आहारादि देना यह श्रावक का बारहवां व्रत है। इस प्रकार गृहस्थाश्रम के बारह व्रत कहे गये हैं । 554 - श्रावक प्रतिमाएँ प्रतिमा आध्यात्मिक क्षेत्र की श्रृंखला में श्रावक सर्वप्रथम सम्यक्त्व श्रद्धा अर्थात् यथार्थ श्रद्धान के साथ पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों को ग्रहण करता है और पुनः आध्यात्मिक उन्नति का इच्छुक यह श्रावक राग-द्वेषरहित होकर जो उत्कृष्टतम साधना करता है, उसे ही प्रतिमा की संज्ञा से सम्बोधित किया गया है। लम्बे समय तक व्रतों का पालन करता हुआ श्रावक पूर्ण त्याग की ओर अग्रसर होता है । उत्साह बढ़ने पर एक दिन कुटुम्ब -
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy