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आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप... 269 इस व्रत का अर्थ है। इस दिग्व्रत से मर्यादित क्षेत्र में जाने आने की व्यापार करने की तथा मर्यादित क्षेत्र में उत्पन्न वस्तुओं के उपयोग आदि की प्रवृत्तियाँ नियमित हो जाती हैं।545
(ख) देशविरति (भोगोपभोग व्रत)
देशविरति में श्रावक दिग्व्रत की सीमा तो कम करता ही है, साथ ही भोगोपभोग आदि अन्य व्रतों में निर्धारित द्रव्यों आदि को भी कम कर लेता है कि आज इससे अधिक वस्तुओं का सेवन नहीं करूँगा। साथ ही अन्य सांसारिक प्रवृत्तियों को भी सीमित कर लेता है। इसे कई आचार्यों ने भोगोपभोग व्रत कहा है। एक बार ही जिन पदार्थों का भोग किया जाता है, उसे भोग, जिनका बार-बार भोग किया जाता है, उसे उपभोग व्रत कहा है। इसका दूसरा नाम भोगोपभोग व्रत है।546
(ग) अनर्थदण्डविरमणव्रत
"अनर्थ" का अर्थ है - निरर्थक और “दण्ड" का अर्थ है पाप इस प्रकार अनर्थदण्ड का अर्थ हुआ - निरर्थक, निष्प्रयोजन-पापाचार, इसका त्याग अनर्थ दण्ड विरमण है। परन्तु स्थूल हिंसा किये बिना गृहस्थ जीवन का गुजारा नहीं। जैसे-भोजन बनाना, आदि आवश्यक कार्यों श्रावक के द्वारा गृहीत व्रतों में दोष नहीं लगता। अर्थात् खण्डित नहीं होते। लापरवाही से होने वाली हिंसा का त्याग ही अनर्थदण्ड विरमणव्रत है।547
3. चार शिक्षाव्रत
शिक्षाव्रत - अणुव्रत और गुणव्रत की निवृत्तिप्रधान चेष्टा को सदैव बनाये रखने के लिये और उसमें प्रगति लाने के लिए किसी शिक्षक एवं प्रेरणा सामग्री की आवश्यकता रहती है वह शिक्षाव्रत है।548 अर्थात अणुव्रतों के पालन करने में जो उपकारक हों, पोषक हों वे गुणव्रत हैं। यह शिक्षाव्रत चार हैं
(क) सामायिक व्रत (ख) देशवकासिक व्रत (ग) पौषध व्रत (घ) अतिथि संविभाग व्रत।549
(क) सामायिक व्रत
समस्त सांसारिक कार्यों - सावध कर्मों को त्याग कर कम से कम 48 मिनट (एक मुहूर्त) तक धर्मध्यान करना सामायिक व्रत है।550