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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
होता हो, घर के आंगन में स्त्रियाँ बैठती हों और उन पर दृष्टि पड़ती हो, स्त्रियाँ समीप हों, समीप ही वेश्याओं का आवास हो, ऐसे स्थान पर ब्रह्मचर्य व्रत के साधक को नहीं रहना चाहिए। यह ब्रह्मचर्य व्रत की तीसरी भावना है। 526
(पूर्वरत पूर्वक्रीडित
(घ) पूर्व भोगे हुए भोगों के स्मरण का त्याग विरति )
पूर्व में भोगी हुई रति-क्रीड़ाओं का स्मरण न करना, उन्हें भूला देना । ब्रह्मचर्य व्रत की चौथी भावना है। 527
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(ङ) गरिष्ठ भोजन का त्याग ( प्रणीत आहार त्याग )
साधक को अधिक स्निग्ध और स्वादिष्ट गरिष्ठ भोजन का त्याग करना चाहिए क्योंकि रसीला आहार विकार को बढ़ाता है। यह ब्रह्मचर्य व्रत की पाँचवीं भावना है। 528
5. अपरिग्रह व्रत की पाँच भावनाएँ
पाँच इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों में आसक्ति का त्याग
(क) स्पर्शन इन्द्रिय (ख) रसन इन्द्रिय ( ग ) घ्राण इन्द्रिय (घ) चक्षु इन्द्रिय (ङ) श्रोत्र इन्दिय 1 529
स्पर्शन रसना - घ्राण-चक्षु श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों में राग और अमनोज्ञ विषयों में द्वेष की भावना न रखना। सचित्त अचित्त पदार्थों में आसक्ति न करना, बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करना ये अपरिग्रह व्रत की भावनाएँ हैं। 530
यह तो संभव नहीं कि व्रती साधक को अनुकूल प्रतिकूल स्पर्श न हो, मधुर और कटुक रस, सुगन्ध दुर्गन्ध, बीभत्स और सुन्दर रूप तथा सुखद और कर्णकटु शब्दों का ग्रहण न हो, वह तो होगा ही, लेकिन व्रती साधक को चाहिए कि उनमें राग द्वेष न करें, अनुकूल के प्रति आकर्षित न हो और प्रतिकूल के प्रति मन में अरुचि न लाये ।
इन्द्रिय विषयों के प्रति समत्व भावना का बार-बार चिन्तन करना अपरिग्रह व्रत की भावनाएँ हैं । 531
धैर्य धारण करना, क्षमा रखना, ध्यान धारण करना, परीषहों को सहन
करना ये पाँच व्रतों की उत्तर भावनाएँ हैं। 532
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