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आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप... 265
(घ) योग्यविधि के विरुद्ध आहार नहीं लेना (ङ) प्राप्त भोजन-पान में सन्तोष रखना।522
साधु को गृहस्थ के घरों में थोड़ा-थोड़ा भोजन लेना चाहिए जिससे गृहस्थ को कोई कष्ट न हो। संयमवृत्ति पालन के लिए ही भोजन ग्रहण करना चाहिए, स्वाद के लिए नहीं। साधु या श्रमण को श्रावक के कहने पर ही आहार लेना है अपने आप मांगकर - अपमान का भोजन नहीं लेना। साधु को आहार-पानी के दोष टालकर निर्दोष भोजन को स्वीकार करना है। निर्दोष जितना भोजन मिले उसे ही ग्रहण करना चाहिए। साधु को गुरुजनों को दिखाकर, आज्ञा लेकर भोजन लेना चाहिए। इन सभी का चिन्तन करना ही अचौर्य व्रत की भावनाएँ हैं।
4. ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाएँ
(क) स्त्रियों की कथा का त्याग। (ख) स्त्रियों के सुन्दर अंगोपांगों को देखने का त्याग (ग) स्त्रियों के साथ रहने का त्याग। (घ) स्त्रियों के साथ पहले भोगे हुए भोगों के स्मरण का त्याग (ङ) गरिष्ठ रस भोजन का त्याग।523
(क) स्त्रियों की कथा का त्याग (स्त्री कथा विरति)
स्त्रियों के काम, मोह, श्रृंगार, सौन्दर्य आदि की कथा न करना। ब्रह्मचर्य व्रत की प्रथम भावना है।524
(ख) स्त्रियों के सुन्दर अंगोपांग के देखने का त्याग - (स्त्रीरूप दर्शन विरति)
__ स्त्री के मनोहर और काम स्थानों को रागपूर्वक न देखना। इनको देखने से ब्रह्मचर्य व्रत के साधक के हृदय में विकार उत्पन्न होने की सम्भावना है। यह ब्रह्मचर्य व्रत की दूसरी भावना है।525
(ग) स्त्रियों के साथ रहने का त्याग
स्त्री, पशु और नपुंसक जिस शय्या आसन पर बैठते हों, उसका त्याग करना। इसका अभिप्राय यह भी है कि जहाँ स्त्रियों का बार-बार आवागमन