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आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा. निर्जरा के हेतु तप... 263
(ग) अस्तेय व्रत - किसी वस्तु को उसके स्वामी की आज्ञा के बिना ग्रहण करना स्तेय - चोरी है, उसका मन, वचन और काया से परित्याग करना अस्तेय अर्थात् अचौर्य व्रत है।509
(घ) ब्रह्मचर्य व्रत - सर्व प्रकार के मैथुन का परित्याग करना ब्रह्मचर्य व्रत कहा जाता है।510
(ङ) अपरिग्रह व्रत - लौकिक पदार्थों में मूर्छा-आसक्ति तथा ममत्व का होना परिग्रह है। उसको त्याग देने का नाम अपरिग्रह व्रत है।।
इन पाँच व्रतों में अहिंसा व्रत को प्रथम स्थान इसलिए दिया गया है कि वह इन सब में प्रधान है। बाकी के चारों व्रतों का अहिंसा की पूर्ति के लिए विधान किया गया है, अहिंसा व्रत की रक्षा में ही इन चारों की रक्षा है। जैसे पकी हुई खेती की रक्षा के लिए बाड़ की जरूरत है, उसी प्रकार ये बाकी के व्रत अहिंसा के संरक्षणार्थ ही कहे गये हैं तथा ग्रहण किये हुए इन व्रतों को स्थिर12 रखने के लिए प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाएँ कही गई हैं।
1. अहिंसा व्रत की पाँच भावनाएँ कही गई हैं
(क) मनोगुप्ति (ख) वचनगुप्ति (ग) ईर्यासमिति (घ) कायनियन्त्रण (ङ) आलोकित पान भोजन।513
(क) मनोगुप्ति - मनोयोग का निरोध अथवा आर्तध्यान और रौद्रध्यान का मन में चिन्तन न करना, मन को संयम में रखना, बुराइयों से रोकना, मनोगुप्ति भावना है।514
(ख) वचन गुप्ति - सत्य और सन्देह रहित वचन बोलना अर्थात् असत्य और कष्टकारी वचनों से मन को रोकना, विवेकपूर्वक वचन बोलना, वचनगुप्ति है।515
(ग) ईर्या समिति - ईर्या शब्द में समस्त शारीरिक क्रियाओं का समावेश हो जाता है। किन्तु इसका मुख्य अभिप्राय गमनागमन की प्रवृत्ति से लिया जाता है। इस रूप में इसका अर्थ है - अपने शरीर प्रमाण अथवा साढ़े तीन हाथ आगे की भूमि देखकर चलना, जिससे किसी भी जीव का घात न हो जाए, उसे कष्ट न पहुंचे।
विस्तृत अर्थ में ईर्यासमिति का अभिप्राय है - उठना, बैठना आदि कोई भी शारीरिक क्रिया ऐसी न की जाये, जिससे किसी भी प्राणी को तनिक भी कष्ट या पीड़ा हो अथवा खिन्नता हो। सरल शब्दों में स्व पर को कष्ट न हो,