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आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप... 261
निर्जरा साधन व्रत
जिस जीवात्मा के जीवन में बिल्कुल विरक्ति आ जाती है वह साधु के पाँच महाव्रत धारण कर लेता है। जिसके जीवन में थोड़ी विरक्त भावना जागृत होती है। वह श्रावक के बारह व्रतों को धारण करता है। इसीलिये व्रतों को निर्जरा का श्रेष्ठ साधन कहा गया है। व्रतों का वर्णन इस प्रकार है -
व्रत की परिभाषा
कोशकारों ने व्रत से द्विविध तात्पर्य ग्रहण किया है एक तो भक्ति या साधना के धार्मिक कृत्य, प्रतिज्ञा आदि को व्रत बतलाया है तो दूसरे पाप से आत्मा को अलग करने की प्रवृत्ति को भी व्रत कहा गया है।490
पापरूपी योगों - मन, वचन एवं काय से पूर्ण विरक्त होना व्रत कहलाता है।491 हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से निवृत्त होना व्रत है।492
प्रतिज्ञा करके जो नियम लिया जाता है वह व्रत है या यह करने योग्य है, यह नहीं करने योग्य है। इस प्रकार नियम करना व्रत है।493
सर्व निवृत्ति के परिणाम को व्रत कहते हैं। किसी पदार्थों के सेवन का अथवा हिंसादि अशुभ कर्मों का नियत या अनियत काल के लिए संकल्पपूर्वक त्याग करना व्रत है।494
उपासकदृशाङ्ग सूत्र में सेवन करने योग्य वस्तु का स्वेच्छा से त्याग करना ही व्रत बतलाया गया है।495
यावज्जीवन हिंसादि पापों की एकदेश या सर्वदेश निवृत्ति को व्रत कहते हैं।496 वह दो प्रकार का है - श्रावकों के अणुव्रत या एकदेशव्रत तथा साधुओं के महाव्रत या सर्वदेशव्रत होते हैं। इन्हें भावना सहित निरतिचार पालने से साधक को साक्षात् मोक्ष की प्राप्ति होती है, अत: मोक्षमार्ग में इनका बहुत महत्त्व है।497
जैन दर्शन में व्रतों के अनुसार धर्म की दो श्रेणियाँ विभक्त की गई हैंआगार धर्म और अनगार धर्म।498
आगारधर्म का अर्थ है - घर, धन, जमींजायदाद, ऐश्वर्य, सुख-सुविधा आदि से जो सम्पन्न होता है, वह आगार है, गृहस्थ है, संसारी है जो आगार द्वादश व्रतों को स्थूल अर्थात् मोटे रूप से पालन करते हैं. वे अणुव्रती कहलाते