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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
जिस प्रकार लोहे की नाव समुन्द्र से दूसरों का पार नहीं कर सकती। वह नाव स्वयं भी पार नहीं होती। उसी प्रकार दोष युक्त पात्र को दिया हुआ दान न स्वयं को, न ही दूसरे को संसाररूपी समुन्द्र से पार लगा सकता है।466 दान देने वाले के गुणों का स्वरूप
दान देने की परम्परा का आरम्भ तथा दान तीर्थ की प्रवृत्ति करने वाले श्रेयांस कुमार (भगवान् ऋषभ देव के पोत्रे) ने श्रद्धा आदि गुणों और नवधा भक्ति सहित पुण्य के लिए सबसे पहले भगवान ऋषभदेव को दान दिया था।467 दान देने वाला सात गुणों से युक्त होना चाहिए। वे सात गुणों के नाम इस प्रकार हैं : -
__1. श्रद्धा, 2. शक्ति, 3. भक्ति, 4. विज्ञान, 5. अक्षुब्धता, 6. क्षमा, 7. त्याग।468 ___1. श्रद्धा - श्रद्धा आस्तिक्य बुद्धि को कहते हैं। आस्तिक्य बुद्धि अर्थात् श्रद्धा के न होने पर दान देने में अनादर हो सकता है। अर्थात् दान श्रद्धा सहित देना चाहिए।
2. शक्ति - दान शक्ति अनुसार देना चाहिए। दान देने में आलस्य नहीं करना चाहिए। जो शक्ति को देखकर आलस्य रहित दान दिया जाता है, उसे शक्ति कहते हैं।
3. भक्ति - जिस पात्र को दान दिया जाता है, उस पात्र के गुणों का आदर सम्मान करना ही भक्ति है। ___4. विज्ञान - दान देने की विधि आदि के क्रम का ज्ञान होना ही विज्ञान
है।
5. अलुब्धता - दान देने की शक्ति को अलुब्धता कहते हैं। 6. क्षमा - दान देते समय सहनशीलता धारण करना क्षमा गुण है। 7. त्याग - दान में उत्तम द्रव्य देना ही त्याग है।469
दान देने का फल
ऊपर कहे हुए सात गुणों से सहित और निदानादि दोषों से रहित होकर पात्र को दान जो देता है, वह मोक्ष के लिए तत्पर होता है।470 नवधा भक्ति
___ दान विनय भक्ति सहित देना चाहिए। वह नवधा भक्ति अथवा नौ प्रकार का पुण्य कहा जाता है। वह नवधा भक्ति नौ प्रकार की है -