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आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप... 257
1. मुनिराज का पड़गाहन करना। 2. ऊँचे स्थान पर विराजित करना। 3. चरण धोना। 4. उनकी पूजा अर्चना करना। 5. नमस्कार करना। 6-7-8. मन-वचन-काय की शुद्धि करना। 9. आहार दान देते समय आहार की विशुद्धि रखना अत्यन्त बुद्धिमान् श्रेयासं कुमार ने पूर्व पर्याय के संस्कारों से प्रेरित होकर वे सभी भक्तियाँ की थीं।471
उत्तम दान देने की महिमा
पात्र दान की महिमा के पश्चात् अब दान देने वाले दाता की महिमा का वर्णन किया गया है कि दान देने के पश्चात् चारों और या समस्त संसार में यश कीर्ति फैल जाती है और सभी अभ्युदय की प्रशंसा करते हैं। कहते हैं - देवों द्वारा - अहो कल्याणं - अहो कल्याणं ऐसी ध्वनि सुनाई देती है, उत्तम दान यश को देने वाला होता है।472
संसार में दान देने की सर्वप्रथम प्रथा
__ संसार में सर्वप्रथम दान देने की प्रथा या दान तीर्थ की प्रवृत्ति करने वाले श्रेयांस कुमार कहे जाते हैं। उन्होंने भगवान ऋषभदेव को सबसे पहले इक्षुरस का दान दिया था। दान देने की प्रथा उसी समय से प्रचलित हुई है। दान देने की विधि तब से ही जानी जाती है।473
पात्र दान का महत्त्व और फल
सुपात्र को दान प्रदान करने से भोगभूमि तथा स्वर्ग के सर्वोत्तम सुख की प्राप्ति होती है, अनुक्रम से मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य उत्तम खेत में अच्छे बीज को बोता है तो उसका फल मनवांछित पूर्ण रूप से प्राप्त होता है। इसी प्रकार उत्तम पात्र में विधिपूर्वक दान देने से सर्वोत्कृष्ट सुख की प्राप्ति होती है। उत्तम कुल, सुन्दर स्वरूप, शुभ लक्षण, श्रेष्ठ बुद्धि, उत्तम निर्दोष शिक्षा, उत्तमशील, उत्तम उत्कृष्ट गुण, अच्छा सम्यक् चारित्र, उत्तम शुभ लेश्या, शुभ नाम और समस्त प्रकार के भोगोपभोग की सामग्री आदि सर्व सुख के साधन सुपात्र दान के फल से प्राप्त होते हैं।474 तपस्वी मुनियों को नमस्कार करने से उच्चगोत्र की प्राप्ति होती है। दान देने से भोग सामग्री की उपलब्धि होती है। उपासना करने से प्रतिष्ठा, भक्ति करने से सुन्दर रूप की प्राप्ति और स्तवन करने से यश कीर्ति की प्राप्ति होती है। मुनियों के पात्र में दिया हुआ थोड़ा सा भी दान समय आने पर पृथ्वी में प्राप्त हुए वट बीज की छाया की तरह मनोवांछित फल को देने के समान होता है।45