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________________ 254 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण (क) आहार दान अशम, पान, खाद्य और स्वाद्य चार प्रकार का श्रेष्ठ दान आहार दान कहलाता है।458 आहार दान देते समय दाता के लिए आवश्यक है कि उसके मन-वचन-काय शुद्ध हो, दान देते समय और उसके पहले तथा पीछे भी उसके मन में कंजूसी, ईर्ष्या आदि दुर्भाव न आयें। मधुर वचनों से पात्र का सत्कार करना चाहिए। काया से उठकर विनय करें। भक्ति और बहुमानपूर्वक विनम्र भाव से दें। दाता दान देते हुए मन में यही सोचें कि आज मेरा भाग्य उदय हुआ है कि मैं कुछ देकर स्वयं को धन्य बना सका हूँ। इस पात्र ने दान लेकर मुझे सौभाग्य प्रदान किया। पात्र तीन प्रकार के होते हैं - महाव्रती, अणुव्रती और श्रावक। महाव्रती को दान देने का उत्तम फल है। अणुव्रती को दान देने का मध्यम फल है। सम्यक्त्वी श्रावक को दान सहयोग की भावना से दिया जाता है। सामान्य पात्रों की अपेक्षा पात्र (सुपात्र) को दान देने का फल बहुत अधिक होता है।459 आहार दान की महिमा और फल आहारदान की ग्रन्थकार ने इतनी महिमा बताई है -- जिसे हम सोच भी नहीं सकते। आहार दान देने से जीव संसार परिभ्रमण अर्थात् संसार-सागर से पार हो जाता है अथवा जन्म मरण के बन्धन से शीघ्र ही मुक्त हो जाता है। श्रद्धापूर्वक दिया हुआ आहारदान मुक्ति का कारण है। शास्त्राकार ने तो यहाँ तक कहा है कि देवलोक का देवता भी उस आहार दान की प्रशंसा करते हुए देवलोक से रत्नों, फूलों, सुवर्ण मुद्राओं की वर्षा करते हैं। आकाश में देवों द्वारा बजाये नगाड़े शब्द समस्त लोक को गूंजायमान कर देते हैं। सुगन्धि वायु चलने लगती है। देवलोक के देवता "धन्य यह दान", "धन्य यह पात्र" इस प्रकार आहार दान का उदाहरण उद्धृत किया गया है। ऐसे दान को महादान कहा गया है।460 उत्कृष्ट भावों से सुपात्र दान देकर जीव अनेक पुण्यों को प्राप्त करता है। पुण्य के महान् फल से जीव उच्च-कुल में जन्म लेता है। दान के प्रभाव से ही जीव तीर्थंकर-गोत्र का बन्ध करता है इतना महत्त्व है दान का!
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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