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आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप..... 253
वाले और लेने वाले को पवित्र करती है, इसी प्रकार लेने वाले की विशुद्धि देने वाले पुरुष को तथा दी जाने वाली वस्तु को पवित्र करती है। तात्पर्य यह है कि दान देने में दाता, देय और पात्र की शुद्धि का होना अति आवश्यक है। 452
दान का पात्र
दान लेने वाले पुरुष को या दान जिस व्यक्ति को दिया जाता है, वे लेने वाला पात्र कहलाता है। वह पात्र रागादि दोषों से रहित और अनेक गुणों से युक्त होता है, वह पुरुष पात्र कहलाता है। जो अनेक विशुद्ध गुणों को धारण करने से पात्र (वर्तन) के समान हो वही पात्र कहलाता है। जो जहाज के तुल्य अपने गन्तव्य या इष्ट स्थान पर ( अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करवाने वाला हो) पहुँचाने वाला हो, वही पात्र कहा जाता है 1453
जो साधक मोक्ष की इच्छा करने वाले हैं वे शरीर को चलाने के लिए और ज्ञानादि गुणों की सिद्धि प्राप्त करने के लिए ही भोजन ग्रहण करते हैं। वे बल, आयु, स्वाद अथवा शरीर को पुष्ट करने की इच्छा से भोजन नहीं करते। जो साधक अपने और दूसरों को तारने वाले हैं ऐसे अनेक गुणों से युक्त ही मुनिराज पात्र हो सकते हैं। ऐसे गुण युक्त साधकों को दिया हुआ पात्र दान मोक्ष का कारण है । 454
दान के प्रकार
शुद्ध धर्म का अवकाश न होने से गृहस्थ धर्म में दान की प्रधानता है। 455 वह दान दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। अलौकिक व लौकिक । अलौकिक दान साधुओं को दिया जाता है। वह दान चार प्रकार का है
1. आहार दान 2. औषध दान 3. ज्ञान दान (शास्त्र दान) 4. अभय दान ।
लौकिक दान साधारण व्यक्तियों को दिया जाता है। जैसे समदत्ति, करुणादत्ति, औषधालय, स्कूल, सदाव्रत, प्याऊ आदि खुलवाना इत्यादि । निरपेक्ष बुद्धि से सम्यक्त्वपूर्वक सपात्र को दिया गया अलौकिक दान दातार को परम पद मोक्ष प्रदान करता है। पात्र, कुपात्र व अपात्र को दिये गये दान में भावों की विचित्रता के कारण फल में बड़ी विचित्रता पड़ती है। 456 रत्नकरण्ड श्रावकाचार में भी दान के चार प्रकार कहे गये हैं आहार, औषध तथा ज्ञान के साथ न शास्त्रदिक उपकरण और स्थान दान को चार प्रकार का वैयावृत्य (सेवा) कहते है। 457