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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण वस्तु को यदि उस दिन चक्रवर्ती का सम्पूर्ण कटक भी खाये तो भी वह लेशमात्र क्षीण नहीं होता। यही अक्षीणमहानस ऋद्धि है।446
(ख) अक्षीण महालय ऋद्धि - जिस ऋद्धि से समचतुष्कोण चार धनुषप्रमाण क्षेत्र में असंख्यात मनुष्य तिर्यंच समा जाते हैं, वही अक्षीण महालय ऋद्धि है।447
निर्जरा साधन दान
दान
___ दान अर्थात् अर्पण उसके कर्ता एवं स्वीकार करने वाले दोनों को उपकारक होना चाहिए। अर्पण करने वाले का मुख्य उपकार तो यह है कि उस वस्तु से ममता दूर होती है और उसका सन्तोष तथा समभाव बढ़ता है। स्वीकार करने का उपकार यह है कि उस वस्तु से उसकी जीवनयात्रा में सहायता मिलती है और इसके परिणामस्वरूप उसके सद्गुण खिलते हैं। दान चाहे शरीराश्रम से दिया गया हो अथवा मानसिक श्रम से दिया गया हो, शिक्षण संस्कार अथवा सहानुभूति के रूप में दिया गया हो या धन अथवा अन्य उपयोगी वस्तु का किया गया है, उसका समावेश त्याग में होता है।
दान का लक्षण
स्व और पर के उपकार के लिए मन-वचन-काया की विशुद्धि से जो अपना धन दिया जाता है, उसे दान कहते हैं।448
दूसरे का उपकार हो, इस बुद्धि से अपनी वस्तु का अर्पण करना दान है।449
रत्नत्रय से युक्त जीवों के लिए अपने वित्त का त्याग करने या रत्नत्रय के योग्य साधनों के प्रदान करने की इच्छा का नाम दान है।450
अनुग्रह के हेतु अपनी किसी भी वस्तु का त्याग करना, दान कहलाता है।451 यहाँ अनुग्रह शब्द का अर्थ उपकार और कल्याण दोनों ही है। अर्थात् अपने और दूसरे के उपकार अथवा कल्याण के लिए अपने स्वामित्व की वस्तु का अतिसर्ग-त्याग कर देना दान है।
दान का महत्त्व
दान देने वाले की (दाता की) विशुद्धता दान में दी जाने वाली वस्तु तथा दान लेने वाले पात्र को पवित्र करती है। दी जाने वाली वस्तु की पवित्रता देने