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________________ 250 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण (क) अमृतस्राविणी ऋद्धि (ख) मधुम्राविणी ऋद्धि (ग) क्षीरस्राविणी ऋद्धि (घ) घृत-स्राविणी ऋद्धि। (क) अमृतम्राविणी रस ऋद्धि - इस ऋद्धि के प्रभाव से साधक विष के समान भोजन को भी अमृत के समान मीठा बना सकता है। अर्थात् इस ऋद्धि से रूखे आहारादि क्षणभर में अमृत के समान हो जाता है।427 जिस ऋद्धि से महर्षि के वचनों के श्रवणकाल में शीघ्र ही दुःखादिक नष्ट हो जाते हैं वह अमृत-स्राविणी ऋद्धि है।428 (ख) मधस्राविणी रस ऋद्धि - जिस ऋद्धि के प्रभाव से भोजन मीठा न होने पर भी मीठा हो सकता है। अर्थात् रूखा आहारादि मधुरस से युक्त हो जाता है।429 इस ऋद्धिधारी मुनि के मुख से निकले वचनों का श्रवण मात्र करने से मनुष्य और तिर्यंचों के दुःख नष्ट हो जाते हैं। वह मधुस्राविणी रस ऋद्धि है।430 (ग) क्षीरनाविणी रस ऋद्धि - जिस ऋद्धि के प्रभाव से भोजनगृह अथवा भोजन में दूध झरने लग जाता है।31 हस्ततल पर रखे हुए रूखे आहारादिक तत्काल ही दुग्ध परिणाम को प्राप्त हो जाते हैं, वह क्षीरस्रावी ऋद्धि है, तथा इस ऋद्धि से मुनियों के वचनों के श्रवणमात्र से ही मनुष्य तिर्यंचों के दुःखादि शान्त हो जाते हैं, उसे क्षीरस्राविणी ऋद्धि समझना चाहिए।432. (घ) घृतस्राविणी रस ऋद्धि - इस ऋद्धि के प्रभाव से भोजनगृह में घी की कमी नहीं आती अर्थात् रूखा भोजन क्षणमात्र से घृतरूप हो जाता है। इसे सर्पिरास्रावी ऋद्धि भी कहते हैं। इस ऋद्धि धारक मुनि के वचनों को सुनने से जीवों के दु:खादि शान्त हो जाते हैं।433 6. बल ऋद्धि इस ऋद्धि के प्रभाव से ऋषि को बल प्राप्त हो जाता है। बल प्राप्त होने पर साधक कठिन से कठिन परीषहों को सहन कर सकता है।434 उष्ण, शीत, आदि परीषह हैं। बल ऋद्धि के तीन भेद हैं - (क) मन बल (ख) वचन बल (ग) काया बल/435 (क) मनोयोग ऋद्धि - जिस ऋद्धि के प्रभाव से साधक समस्त द्वादशाङ्ग (बारह अंग आगम) का अन्तर्मुहूर्त में अर्थ रूप से चिन्तन मनन कर सकता है उसे मनोबल ऋद्धि कहते हैं।436
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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