________________
आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप... 247
अनेक प्रकार के रूपों में परिवर्तित कर सके वह वैक्रिय ऋद्धि है। यह अधिकतर योगियों, महर्षियों को ही प्राप्त होती है। वैक्रिय ऋद्धि के आठ भेद कहे गये हैं 102
(क) अणिमा वैक्रिय ऋद्धि (ख) महिमा वैक्रिय ऋद्धि (ग) गरिमा वैक्रिय ऋद्धि (घ) लघिमा वैक्रिय ऋद्धि (ङ) प्राप्ति वैक्रिय ऋद्धि (च) प्राकाम्य वैक्रिय ऋद्धि (छ) ईशित्व वैक्रिय ऋद्धि (ज) वशित्व वैक्रिय ऋद्धि 1403
(क) अणिमा वैक्रिय ऋद्धि इस ऋद्धि के प्रभाव से साधक अपने शरीर को परमाणु के समान सूक्ष्म बना सकता है। 404
अणु के बराबर अपने शरीर को करना अणिमा ऋद्धि है। इस ऋद्धि में मह्यर्षि अणु के बराबर छिद्र में प्रविष्ट होकर वहाँ ही चक्रवर्ती के कटक और निवेशकी विक्रिया द्वारा रचना करता है। 405
(ख) महिमा वैक्रिय ऋद्धि यह महिमा ऋद्धि अधिकतर तपोविशेष से श्रमणों को हुआ करती है। इस ऋद्धि में साधक अपने शरीर को मेरुपर्वत से भी स्थूल बना सकते हैं 1406
(ग) गरिमा ऋद्धि
समान भारी (वजनदार) बना
(घ) लघिमा ऋद्धि लघिमा ऋद्धि में महर्षि अपने शरीर को वायु से भी लघु ( हल्का ) कर सकते हैं। 408
इस ऋद्धि में साधक अपने शरीर को वज्र के सकते हैं इसलिए गरिमा ऋद्धि है | 407
(ङ) प्राप्ति ऋद्धि इस ऋद्धि में जो चाहे वह प्राप्त कर सकते हैं। इस ऋद्धि में जमीन पर बैठे ही मेरु पर्वत की चोटी छू सकते हैं। अथवा देवों के सिंहासन को कम्पायमान कर सकते हैं। 409
-
भूमि पर स्थित रहकर अंगुलि के अग्रभाग से सूर्य चन्द्रादिक को, मेरुशिखरों को तथा अन्य वस्तु को प्राप्त करना यह प्राप्ति ऋद्धि कहलाती है | 410
(छ) ईशित्व ऋद्धि प्रभुत्व प्राप्त कर लेता है।
(च) प्राकाम्य ऋद्धि इस ऋद्धि के प्रभाव से अढ़ाई द्वीप में जहाँ चाहे वहाँ जा सकते हैं। अर्थात् जल में स्थल की तरह और स्थल में जल की तरह गमन कर सकते हैं वह प्राकाम्य ऋद्धि है। 41
इस ऋद्धि का धारक साधक सारे जगत् पर