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________________ 244 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण __ (क) उग्रोग्रतप ऋद्धि (ख) अवस्थित उग्रतप ऋद्धिा379 (घ) घोरतप ऋद्धि - जिस ऋद्धि के बल से ज्वर और शूलादिक रोगों से शरीर को अत्यन्त कष्ट होने पर भी साधुजन दुर्द्धर तप को सिद्ध करते हैं, वह घोरतप ऋद्धि है।80 3. विक्रिया ऋद्धि विक्रिया ऋद्धि से अभिप्राय उस ऋद्धि से है जिसके द्वारा जीव विचित्र प्रकार की शरीर रचना अथवा क्रियायें करता है। यह बात इसके भेदों के वर्णन से स्पष्ट हो जाती है। विक्रिया ऋद्धि के दो भेद हैं - (क) क्रिया विक्रिया ऋद्धि; (ख) विक्रिया ऋद्धि। (क) क्रिया विक्रिया ऋद्धि - बाह्य और आभ्यन्तर निमित्त से द्रव्य में होने वाले परिस्पन्दात्मक परिणमन क्रिया है। परिस्पन्दन अर्थात् हलन चलन रूप अवस्था को क्रिया कहते हैं। जो एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में गमनरूप हिलने वाली, चलने वाली हो वह क्रिया है।381 क्रिया ऋद्धि के दो भेद हैं382 - 1. चारण क्रिया ऋद्धि 2. आकाशगामित्व क्रिया ऋद्धि 1. चारण क्रिया ऋद्धि - चारण ऋद्धि के प्रभाव से साधक हमेशा सिंह के समान विचरण करते हैं। जिस प्रकार सिंह सदैव अकेला निर्भय होकर इधर-उधर घूमता है, वैसे ही चारण ऋद्धि वाला मुनि एकाकी, भयरहित अथवा चतुर्गति रूप संसार के भय से रहित होकर विहार करते हैं और वे सिंह के समान अत्यन्त धीर-वीर होते हैं।383 चारण क्रिया ऋद्धि के सात भेद हैं384 - (य) जल चारण ऋद्धि (र) जंघा चारण ऋद्धि (ल) फल चारण ऋद्धि (व) श्रेणी चारण ऋद्धि (श) तन्तु चारण ऋद्धि (ष) पुष्प चारण ऋद्धि (स) अम्बर चारण ऋद्धि। (य) जल चारण ऋद्धि - इप्त ऋद्धि के प्रभाव से साधक जल में भी स्थल के समान चल सकते हैं और जल में विचरण करने पर भी जलकायिक और जलचर जीवों को किसी प्रकार की पीड़ा-दर्द नहीं होता।385
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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