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आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप... 243
(ग) पदानुसारी बुद्धि - पदानुसारी बुद्धि वाला साधक आगम के आदि, मध्य, अन्त को सुनकर ही समस्त आगम को जान लेते हैं ऐसी बुद्धि पदानुसारी बुद्धि है।369A
(घ) संभिन्नश्रोतृ बुद्धि - यह बुद्धि वाला साधक नौ योजन चौड़े और बारह योजन लम्बे क्षेत्र में फैले हुए चक्रवर्ती के कटक सम्बन्धी समस्त मनुष्य
और तिर्यंचों के अक्षरात्मक तथा अनक्षरात्मक मिले हुए शब्दों को एक साथ ग्रहण कर सकता है वह संभिन्नश्रोतृ वृद्धि कहलाती है।370
श्रोत्रेन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय का उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म का उदय होने पर श्रोत्रेन्द्रिय के उत्कृष्ट क्षेत्र से बाहर दसों दिशाओं से संख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र में स्थित मनुष्यों एवं तिर्यंचों के अक्षरानक्षरात्मक बहुत प्रकार के उठने वाले शब्दों को सुनकर जिससे (युगमत्) प्रत्युत्तर दिया जाता है। वह बुद्धि संभिन्नश्रोतृ नाम बुद्धि है।371
2. तप ऋद्धि
कर्मक्षय करने के लिए जो तपा जाता है अर्थात् कर्मों को नष्ट करने के लिए मानसिक, शारीरिक कष्ट को समता से सहना ही तप है।372 तप करने के पश्चात् साधक को जो अलौकिक या अद्भुत शक्ति उपलब्ध होती है वह तप ऋद्धि है।
तप ऋद्धि चार प्रकार की होती है
(क) दीप्त तप ऋद्धि (ख) तप्त तप ऋद्धि (ग) उग्र तप ऋद्धि (घ) घोर तप ऋद्धि।373
(क) दीप्त तप ऋद्धि374 - जिस ऋद्धि के प्रभाव से मन-वचन-काया से बलिष्ठ साधन ने अनेक उपवास, व्रतों के द्वारा शरीर को सूर्य की किरणों के समान देदीप्यमान बना लिया है वह दीप्त तप नामक ऋद्धि है। 75
(ख) तप्त तप ऋद्धि376 - जिस प्रकार तपी हुई लोहे की कड़ाही में गिरे हुए जलकण समाप्त हो जाते हैं उसी प्रकार इस ऋद्धि के प्रभाव से खाया हुआ अन्न धातुओं सहित क्षीण हो जाता है, अर्थात् मल-मूत्रादिरूप में परिणमन नहीं करता है, वह निज ध्यान से उत्पन्न हुई तप्त तप ऋद्धि है।377
(ग) उग्र तप ऋद्धि - जिस ऋद्धि के प्रभाव से साधक उग्र तपश्चरण करता है वह उग्र तप नामक ऋद्धि है और भयानक कर्मरूपी शत्रुओं का नाश करता है। 78 उग्र तप ऋद्धि के दो भेद हैं -