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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण धर्मध्यान के बाह्य और अन्तरंग चिह्न
धर्म से प्रेम करना, प्रसन्नचित्त रहना, शुभ योग रखना, उत्तम शास्त्रों का अभ्यास करना, चित्त स्थिर रखना और आज्ञा (शास्त्र का कथन) तथा स्वकीय ज्ञान से एक प्रकार की विशेष रुचि (प्रीति अथवा श्रद्धा) उत्पन्न होना ये धर्मध्यान के बाह्य चिह्न है और बारह अनुप्रेक्षाएँ अनेक प्रकार की शुभ भावनाएँ धर्मध्यान के अन्तरंग चिह्न हैं।335
धर्मध्यान का फल
पञ्चम पर्व में राजा शतबल ने धर्मध्यान के प्रभाव से सम्यक्दर्शन से पवित्र होकर श्रावक के व्रत ग्रहण किये थे विशुद्ध परिणामों से अन्तिम समय समाधिमरण पूर्वक देह त्यागकर देवायु का बन्ध किया। उपवास, अवमोदर्य आदि तप करके अर्थात् महेन्द्र स्वर्ग में बड़ी-बड़ी ऋद्धियों के धारक और अणिमा, महिमा आदि गुणों से सहित सात सागर प्रमाण आयु वाला देव बना।336
धर्मध्यान से अशुभ कर्मों की अधिक निर्जरा होती है और शुभ कर्मों का उदय होने पर इन्द्र का सुख और स्वर्ण की प्राप्ति तो होती ही है परन्तु परम पद अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति भी होती है।337
4. शुक्लध्यान का लक्षण
जो ध्यान शोक को दूर करे वह शुक्ल ध्यान है। अर्थात् जीव के कषाय रूप मल के नष्ट होने पर जब आत्मा शुक्ल (सफेद) पवित्र हो जाती है, उस ध्यान की अवस्था को शुक्लध्यान कहते हैं।338 अर्थात् यह ध्यान इष्ट वियोगअनिष्ट-संयोग जनित शोक को जरा भी फटकने नहीं देता, और आत्मा पर लगे हुए अष्टविध कर्मफल को दूर करके उसे शुक्ल-उज्ज्वल बनाता है, इस कारण यह शुक्लध्यान कहलाता है।
शुक्लध्यान के प्रकार
यह ध्यान शुक्ल और परमशुक्ल के भेद से आगम में दो प्रकार का कहा गया है इनमें से पहला शुक्लध्यान तो छद्मस्थ अर्थात् जिन्हें केवल ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ, इस अवस्था में साधक को होता है और दूसरा परम शुक्ल ध्यान केवली भगवान (अरहन्त देव) को होता है।339
शुक्लध्यान और परमशुक्ल ध्यान दोनों के दो-दो भेदों को मिलाकर ध्यान के चार भेद कहे गये हैं।