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________________ आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप..... 235 (उदय) को जानने वाला साधक उन्हें नष्ट करने के लिए प्रयत्न करता है। इसलिए मोक्षाभिलाषी साधक मोक्ष के उपाय से विपाक विचय नामक धर्मध्यान का निरन्तर चिन्तन करता है। 329 अथवा कर्मों की अनुभाव शक्ति का विचार, किस कर्म का कैसा शुभ या अशुभ विपाक होता है? उन कर्मों की फलदायिनी शक्ति का चिन्तन भी विपाक विचय धर्मध्यान है | 330 (घ) संस्थानविचय धर्मध्यान का लक्षण लोक के आकार तथा लोक के अन्तर्गत रहने वाले जीव अजीवादि तत्त्वों का विचार करना, बार-बार चिन्तन करना संस्थान विचय नामक धर्मध्यान है। 331 यह धर्मध्यान अप्रमत्तसंयत सातवें गुणस्थान वाले साधक को होता है और उपशान्त कषाय और क्षीण कषाय- ग्यारहवें बारहवें गुणस्थान वालों को भी संभव है। 332 संस्थान विचय धर्मध्यान के विषय संस्थान विचय धर्मध्यान करने वाला साधक इस लोक के ध्यान के साथ- साथ द्वीप, समुन्द्र, पर्वत, नदी, सरोवर, विमानवासी, भवनवासी तथा व्यन्तरों के रहने के स्थान और नरकों की भूमियाँ, आदि पदार्थों का भी चिन्तन करें इसके अतिरिक्त लोक में वास करने वालें संसारी और मुक्त जीव भेदोप भेद का ध्यान करें। 333 धर्मध्यान की स्थिति और लेश्याएँ धर्मध्यान करने वाला साधक अप्रमत्त अवस्था का आलम्बन ( सहारा) कर अन्तर्मुहूर्त तक स्थित रहता है और प्रमाद रहित ( सप्तम् गुणस्थानवर्ती) जीवों में ही अतिशय उत्कृष्टता को प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त अतिशय शुद्धि को धारण करने वाला, पीत्, पद्म, शुक्ल तीन शुभ लेश्याओं के बल से वृद्धि को प्राप्त होता है । सम्यग्दर्शन से सहित चौथे, पाँचवें, छठे गुणस्थान में भी यह ध्यान रहता है। तात्पर्य यह है इस ध्यान करने वाले जीव को कम से कम सम्यग्दृष्टि अवश्य होना चाहिए क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का श्रद्धान और निर्णय नहीं होता। मन्दकषायी (जिसके कषाय मन्द हो गये हैं) मिथ्यादृष्टि जीवों को जो ध्यान होता है, उसे शुभ भावना कहते हैं। इस ध्यान में जीव क्षायोपशमिक भाव से आगे बढ़ता है। इसका फल भी बहुत उत्तम होता है। अत्यन्त बुद्धिमान् जीव ही इस ध्यान को धारण करते हैं। वस्तुओं के धर्म का अनुयायी होने के कारण इसे धर्मध्यान कहते है। 334
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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