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________________ 234 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण कहते हैं। क्योंकि प्रत्यक्ष और अनुमान के विषय से रहित केवल श्रद्धान करने योग्य पदार्थों में एक आगम की ही गति होती है। अर्थात् संसार में कितने ही पदार्थ ऐसे हैं जो न प्रत्यक्ष न अनुमान से जाने जा सकते हैं। ऐसे सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों का ज्ञान केवल आगम के द्वारा ही होता है। श्रुति, सुनृत, आज्ञा, आप्तवचन, वेदांग, आगम और आम्नाय इन पयार्यवाची शब्दों से बुद्धिमान् पुरुष उस आगम को जानते हैं आगम ज्ञान आदि और अन्त से रहित है, सूक्ष्म है, यथार्थ अर्थ को प्रकाशित करने वाला है जो मोक्ष रूप पुरुषार्थ का उपदेशक होने के कारण जीवों का हित करने वाला है, जो अपरिमित है, परवादीरहित, जिसका शासन अतिशय गम्भीर है, जो परम उत्कृष्ट है, ऐसे प्रवचन अर्थात आगम को सत्यार्थ रूप मानकर उसका चिन्तन करें।325 किसी सूक्ष्म विषय में अपनी मन्दबुद्धि तथा योग्य उपदेशता के अभाव में स्पष्ट निर्णय की स्थिति न बन सके, उस समय वीतराग भगवान् की आज्ञा को प्रमाण मानकर वह कैसी और किस प्रकार की हो सकती है, इस विषय में चिन्तन करना आज्ञाविचय धर्मध्यान हैं।326 (ख) अपाय विचय धर्मध्यान जन्म-जरा-मरण तीन प्रकार के सन्तापादि से भरे हुए संसार रूपी समुद्र में जो प्राणी पड़े हुए हैं, उनके अपाय का चिन्तन करना अपाय विचय नामक धर्मध्यान है अर्थात् इस संसार में जीव निरन्तर दुःख भोग रहे हैं। उनके दुःख का बार-बार चिन्तन करना भी अपाय विचय है।327 अपाय का अर्थ दोष है। दोषों के स्वरूप और उनसे पीड़ा पाने के हेतुओं का चिन्तन करना अथवा उन अपायों (दु:खों) के दूर करने की चिन्ता से उन्हें दूर करने वाले अनेक अपायों का चिन्तन करना अपाय विचय है।328 (ग) विपाक विचय नामक धर्मध्यान शुभ और अशुभ भेदों में विभक्त हुए कर्मों के उदय से संसाररूपी आवर्त की विचित्रता का जो साधक ध्यान करते हैं, उसे विपाक विचय धर्मध्यान कहते हैं। कर्मों का उदय दो प्रकार का माना जाता है। जिस प्रकार किसी वृक्ष के फल एक तो समय पाकर अपने आप पक जाते हैं, दूसरे कृत्रिम उपायों से पकाये जाते हैं। उसी प्रकार कर्म भी अपने शुभ अथवा अशुभ फल देते हैं अर्थात् एक तो स्थिति पूर्ण होने पर स्वयं फल देते हैं। दूसरे तपश्चरणादि के द्वारा स्थितिपूर्ण होने से पहले ही अपना फल देने लगते हैं। कर्मों के विपाक
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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