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________________ आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप... 233 मारने से पहले हिंसक मनुष्य अपनी आत्मा की हिंसा अवश्य कर लेता है अर्थात् अपने क्षमादि गुणों को नष्ट कर भाव हिंसा का अपराधी अवश्य बन जाता है।18 यहाँ भाव हिंसा का उदाहरण देकर ग्रन्थकार समझता है। स्वयंभू रमण समुद्र में एक तन्दुल नाम का छोटा मत्स्य रहता है। तन्दुल का अर्थ है - चावल। चावल के दाने के आकार जितना मत्स्य का आकार होता है। जो समुद्र में रहने वाले महामत्स्य के कान में रहता है। यद्यपि वह जीवों की हिंसा नहीं कर पाता है, केवल बड़े मत्स्य के मुख में आये हुए जीवों को ही देखता है। क्योंकि जब मत्स्य सोता है या जीवों की खाने की इच्छा नहीं होती तो महामत्स्य के मुख से छोटे-छोटे जीव आते जाते रहते हैं। वह तन्दुल मत्स्य यह सब क्रिया देखकर मन में उन्हें मारने का भाव उत्पन्न कर लेता है। केवल भाव मात्र से ही वह महामत्स्य के समान साँतवीं नरक तक में जाकर पैदा हो सकता है। यह भाव हिंसा का उदाहरण है।19 आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान की उत्पत्ति के कारण अनादि काल की वासना से उत्पन्न होने वाले यह दोनों ध्यान बिना प्रयत्न के ही हो जाते हैं। साधक को दोनों का त्याग कर देना चाहिए।320 3. धर्मध्यान का लक्षण जो ध्यान धर्म से सहित होता है, वह धर्मध्यान कहलाता है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों के सहित जो वस्तु का यथार्थ स्वरूप है, वही धर्म कहलाता हैं321 तात्पर्य यह है कि वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं और जिस ध्यान में वस्तु के स्वभाव का निरन्तर चिन्तन किया जाता है, उस ध्यान को धर्मध्यान कहते हैं।322 अथवा चित्त (मन) की जिस वृत्ति में शुद्ध धर्म की भावना का विच्छेद न पाया जाये, वह धर्मध्यान कहलाता है।323 धर्मध्यान के चार भेद होते हैं - (क) आज्ञा विचय (ख) अपाय विचय (ग) संस्थान विचय (घ) विपाक विचय। विचय का अर्थ है - विचारणा, गहरी विचारणा, सतत विचारणा, यह चिन्तन भी है।324 (क) आज्ञा विचय अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ का ज्ञान करवाने वाला जो आगम है, उसे आज्ञा
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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