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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
(ग) स्तेयानन्द रौद्रध्यान का लक्षण - किसी दूसरे के द्रव्य को हरण करने अर्थात् चोरी करने में अपना मन लगाना, उसी का बार-बार सोचते रहना, स्तेयानन्द नामक तीसरा रौद्रध्यान है।।।
(घ) संरक्षणानन्द नामक रौद्रध्यान - धन के उपार्जन करने आदि का निरन्तर चिन्तन करना संरक्षणानन्द रौद्रध्यान है। इसे परिग्रहानन्द रौद्रध्यान भी कहते हैं।312
उपर्युक्त तीसरे एवं चौथे प्रकारों में भौहें टेढ़ी हो जाना, मुख का विकृत हो जाना, पसीना आने लगना, शरीर कांपने लगना और नेत्रों का अतिशय लाल हो जाना आदि रौद्रध्यान के बाह्य चिह्न कहलाते हैं।313
रौद्रध्यान की स्थिति काल और भाव
यह ध्यान अत्यन्त अशुभ, कृष्ण, कापोत, नील तीन बुरी लेश्याओं के बल से उत्पन्न होता है। इसका समय अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है। रौद्रध्यान में क्षायोपशमिक भाव होता है। यह ध्यान छठे गुणस्थान से पहले पाँच गुणस्थानों में होता है।314
हिंसानन्द रौद्रध्यान के चिह्न
क्रूर होना, हिंसा के उपकरण तलवारादि को हाथ में रखना, हिंसक कथाएँ करना, स्वभाव में भी हिंसक विचार होना। ये सभी हिंसानन्द रौद्रध्यान के चिह्न माने गये हैं। 15
रौद्रध्यान का फल
हिंसायुक्त भाव से जीव की गति नरक की होती है। जैसे पंचम पर्व में राजा अरविन्द जो मृत्यु से पहले हिंसक विचार मन में आने पर (जैसे - मैं मृगों को मारकर उनके खून की बावड़ी बनवाऊँ और उस रुधिर में स्नान करूँ), बहुत आरम्भ को बढ़ाने वाले रौद्रध्यान का चिन्तन करने से नरकायु का बन्ध किया और मृत्यु के पश्चात् नरक में पैदा हुआ।316 रौद्रध्यान का फल अत्यन्त कठिन नरक गति में घोर यातनाओं अर्थात् दुःखों को प्राप्त करना है।17।
हिंसक पुरुष, जीवों पर दया नहीं करता। हिंसक वृत्ति होने पर वह अपने आप का घात अवश्य कर लेता है। चाहे वह जीवों का वध करें, चाहे न करे। मन में हिंसक (पापकारी) भाव आने पर या संकल्प मात्र करने से तीव्र कषाय उत्पन्न कर लेता है। जीवों को मारना उनके आयु कर्म के अधीन है। परन्तु